केंद्र सरकार ने यूएपीए और पीएमएलए कानून का सही उपयोग किया है अथवा नहीं, यह अब अदालती समझ के दायरे में गंभीर विषय बन गया है। इन कठिन कानूनों के तहत गिरफ्तार किये गये कई लोगों को जमानत दे दी गयी है।
वजह यह है कि जांच एजेंसियां सिर्फ जांच होने के बहाने बनाती रही और अब तक अदालत की समझ में आने लायक सबूत पेश नहीं किये। यूएपीए के तहत बिहार के निवासी आरोपी को जमानत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, चाहे अपराध कितना भी गंभीर क्यों न हो, अगर जमानत के पक्ष में कोई तर्क है, तो आरोपी को रिहा करना अदालत का कर्तव्य है।
यह अवलोकन कई कारणों से बहुत महत्वपूर्ण है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के जजों ने कोर्ट के अंदर और बाहर बार-बार जमानत के पक्ष में बात की है। उन्होंने याद दिलाया कि आज़ादी हर भारतीय का संवैधानिक अधिकार है, जब तक कोई विशेष कारण न हो किसी को भी जेल में नहीं डालना चाहिए।
मुख्य न्यायाधीश ने निचली अदालतों को याद दिलाया कि आलोचना के डर से जमानत अर्जी खारिज करना अनुचित है। जघन्य गतिविधियों में शामिल होने के आरोपी व्यक्ति को भी जमानत मिल सकती है, यदि वह जमानत के पक्ष में अदालत के समक्ष उचित तर्क और सबूत पेश कर सके।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला किसी भी आपराधिक मुकदमे में महत्वपूर्ण है, लेकिन यह आतंकवाद विरोधी धारा यूएपीए से जुड़े मामलों में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। बार-बार आरोप लग रहे हैं कि यूएपीए के आतंकवाद विरोधी प्रावधानों का इस्तेमाल राजनीतिक विरोध को दबाने के लिए किया जा रहा है।
चूंकि इस धारा के तहत जमानत मिलना मुश्किल है, इसलिए यूएपीए लगाने से आरोपी को लंबे समय तक जेल में रखा जा सकता है। इसलिए, सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणियां यूएपीए के तहत विचाराधीन कैदियों को आश्वस्त करेंगी।
साथ ही उम्मीद है कि असहमति की आवाजों को दबाने के लिए इस कानून का दुरुपयोग भी कम होगा। शीर्ष अदालत ने फैसला सुनाते वक्त हाईकोर्ट और निचली अदालतों को भी अपने विवेक का इस्तेमाल करने की सलाह दी है ताकि सारे मामले सुप्रीम कोर्ट तक ना आएं।यह कहा गया है कि यदि कानून का शासन उचित है, तो यूएपीए को बहुत ही कम मामलों में, बहुत सावधानी से लागू किया जाना चाहिए।
व्यवहार में, यूएपीए के तहत तीन वर्षों (2018-20) में 4,690 लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिनमें से केवल तीन प्रतिशत को दोषी ठहराया गया।
लेकिन कानून इतना सख्त है कि लगभग सभी आरोपियों को लंबे समय तक जेल में रखा गया है। हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने भीमा कोरेगांव मामले (2018) में गिरफ्तार किए गए कई लोगों को जमानत दे दी।
इनमें से कई के मामले में देखा गया है कि चार-पांच साल तक हिरासत में रखने के बाद भी पुलिस अपने आरोपों के समर्थन में पर्याप्त सबूत अदालत में पेश नहीं कर सकी।
दूसरी तरफ पीएमएलए कानून का बेजा और राजनीतिक इस्तेमाल भी स्पष्ट हो चुका है। हाल की एक घटना में, बिहार से एक मामला शीर्ष अदालत में आया, जहां जमानत आवेदक के पास एक घर था। उसने यह घर एक ऐसे व्यक्ति को किराए पर दिया था जिसके बारे में पुलिस का मानना था कि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ आतंकवादी कृत्य की साजिश रच रहा था।
शीर्ष अदालत ने यह कहते हुए याचिका स्वीकार कर ली कि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि मकान मालिक को पता था कि किरायेदार किस संगठन से है। यह संगठन आतंकवादी संगठनों की सूची में भी नहीं है। इसलिए मकान मालिक के आतंकी गतिविधियों से जुड़े होने का कोई सबूत नहीं है। मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने जो आशंका कई बार व्यक्त की है, क्या इस मामले में भी वैसा ही हुआ है या नहीं, यह सवाल किसी के मन में उठ सकता है – यानी क्या अपराध का महत्व जमानत याचिका की वैधता से अधिक महत्वपूर्ण है?
निचली अदालत में? लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने पहले वाले को ज्यादा महत्व दिया। इसने न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता की स्थापना की, बल्कि भारत नामक राष्ट्र के लोकतांत्रिक चरित्र को भी स्थापित किया।
शीर्ष अदालत ने सरकार के सभी स्तरों पर भारत को डंडे का राज बनाने के राजनीतिक प्रयासों, झूठे मामलों से डराकर बोलने की स्वतंत्रता को कम करने, झूठे आरोपों पर गिरफ्तार करके आंदोलन की स्वतंत्रता को कम करने की प्रवृत्ति के बारे में बार-बार चेतावनी दी है। अस बात को अब केंद्रीय जांच एजेंसियों के साथ साथ वर्तमान केंद्र सरकार को भी समझ लेना चाहिए कि ऐसे कानूनों का राजनीतिक इस्तेमाल खतरनाक है। तय है कि भविष्य में जब कभी सरकार बदलेगी तो उन्हें भी यही सब झेलना पड़ेगा।