कर्नाटक चुनाव में भाजपा के अंदर से कई विरोधी स्वर सुनाई पड़ रहे हैं। इसमें से एक तो यह है कि इस बार भाजपा की रणनीति वहां के सबसे प्रमुख लिंगायत समाज को सत्ता से दूर करने का है। भाजपा के टिकट वितरण में जो समीकरण उभरे हैं, उससे साफ हो गया है कि लिंगायत समाज के सभी प्रमुख नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है।
एक कद्दावर नेता येदियुरप्पा बचे हैं जो चुनावी राजनीति से हटने का एलान कर चुके हैं। वैसे कर्नाटक के बाद भी इस साल कई प्रमुख राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं और उसके पश्चात 2024 में लोकसभा चुनाव भी निर्धारित हैं। ऐसे में विपक्षी दलों को शायद शक्तिशाली भाजपा की ताकत का मुकाबला करने के लिए एक साझा मुद्दा मिल गया है।
कर्नाटक में भाजपा छोड़कर जाने वाले यह आरोप लगा रहे हैं कि दरअसल प्रह्लाद जोशी और बीएल संतोष वहां ब्राह्मण लॉबी को आगे बढ़ा रहे हैं। चुनाव का पांसा अगर भाजपा के खिलाफ गया तो यह मुद्दा दूसरे चुनावों पर भी असर डाल देगा। दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर मांग की है कि सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना के आंकड़े जारी किए जाएं।
यह चाल सबसे पहले बिहार के मुख्यमंत्री ने तब चल दी थी जब वह भाजपा के साथ ही सरकार में थे। जातिगत जनगणना का एक फायदा हिंदू मुसलमान कार्ड के प्रभाव का कम होना है। चुनाव करीब आने के साथ साथ हिंदू मुसलमान कार्ड को फिर से आजमाने की कोशिशें हम देख रहे हैं।
श्री खडगे ने श्री मोदी को जो पत्र लिखा है उसमें कहा गया है कि यह जनगणना 2011-12 में की गई थी और इसमें 25 करोड़ परिवारों को शामिल किया गया था। हालांकि इसके आंकड़े जारी नहीं किए गए। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी मांग की है कि इन आंकड़ों को जारी किया जाए। उन्होंने दलील दी है कि जाति आधारित आरक्षण में 50 फीसदी की सीमा समाप्त हो चुकी है। ऐसी मांगें नई नहीं हैं लेकिन जिस समय यह बात उठाई गई है उससे यही संकेत मिलता है कि मूल विचार है सामाजिक न्याय को चुनावी मुद्दा बनाना।
अभी यह देखना होगा कि क्या चुनाव में यह कारगर साबित होता है लेकिन फिलहाल देश जिस मोड़ पर है वहां जातीय राजनीति पर ध्यान केंद्रित करना सही नहीं प्रतीत होता। निश्चित रूप से जाति आधारित जनगणना का विचार अधिक आरक्षण की ओर ले जाने वाला है और इससे सरकारी व्यय में बदलाव आएगा।
क्षेत्रीय दलों ने इस विचार का जमकर समर्थन किया है। बिहार में तो जाति आधारित जनगणना हो भी रही है। मांग तो यह भी थी कि हर दशक में होने वाली जनगणना जो 2021 में महामारी के कारण टाल दी गई, उसमें भी जाति आधारित सूचना जुटाई जाए। दलील दी गई कि ऐसी पिछली जनगणना 1931 में की गई थी जब भारत ब्रिटिश उपनिवेश था और अभी भी बेहतर सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए हालात की समीक्षा की आवश्यकता है।
सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में जाति के आधार पर आरक्षण देने के रूप में सकारात्मक कार्यवाही की जाती रही है। चूंकि 2021 की जनगणना को आगे बढ़ा दिया गया और समाचार बताते हैं कि शायद 2024 के लोकसभा चुनावों के पहले यह जनगणना न हो सके तो इसलिए यह एक अहम चुनावी मुद्दा बन सकता है।
सरकार ने 2021 में संसद को बताया था कि नीतिगत रूप से उसने निर्णय लिया है कि वह अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अलावा शेष आबादी को जाति के आधार पर अलग-अलग नहीं गिनेगी। परंतु राजनीतिक दृष्टि से अभी यह स्पष्ट नहीं है कि अगर यह मुद्दा चुनावी दृष्टि से जोर पकड़ गया तो भाजपा क्या करेगी।
अभी तक भाजपा जाति से परे धार्मिक पहचान का सफलतापूर्वक लाभ उठाने में कामयाब रही है। ऐसे में वह राजनीतिक रूप से कोई कसर छोड़ना नहीं चाहेगी। ऐसे में संभव है कि राजनीतिक बहस में जाति और धर्म की बातें नजर आएं। बल्कि जाति आधारित जनगणना स्वयं सामाजिक विभाजन को बढ़ाने वाली साबित होगी।
अन्य पिछड़ा वर्ग जिस पर सबसे अधिक ध्यान है वह कोई एक समान समूह नहीं है। उसमें कई उप जातियां हैं तथा अलग-अलग जातियों को अलग-अलग राज्यों में भिन्न-भिन्न दर्जे दिए गए हैं। इसके अलावा कई राज्यों में प्रभावशाली जातियां इस श्रेणी में आरक्षण की मांग कर रही हैं।
आरक्षण पर नए सिरे से विचार करने पर ऐसी मांग उठ सकती हैं जिनको पूरा करना मुश्किल हो सकता है। ऐसे में यह अहम है कि भारतीय राजनीतिक बहस जाति और धर्म की खाई से ऊपर उठे और आर्थिक विकास पर ध्यान दे। इसमें दो राय नहीं है कि वंचितों और गरीबों को उचित अवसर मिलने चाहिए लेकिन केवल आरक्षण से इसका अपेक्षित फायदा आज तक नहीं हो पाया है। ऐसे में चुनावी मौसम में यह मुद्दा फिर से उठेगा यह स्वाभाविक बात है।