झारखंडमुख्य समाचारराजनीति

स्थानीयता और नियोजन नीति में कौन गुमराह कर रहा हेमंत सोरेन को

भाजपा को पीछे छोड़ने में दोनों फैसले असरदार बने थे

  • अलग राज्य के आंदोलन में यही थी मांग

  • बाबूलाल और रघुवर दास दोनों ने कोशिश की

  • 32 का खतियान दोबारा लागू किया हेमंत ने

राष्ट्रीय खबर

रांची: झारखंड में भाजपा को परास्त कर 2019 में बनी हेमंत सोरेन की सरकार बड़ी लकीर खींचने की तैयारी में थी, लेकिन उनकी कोशिशों पर पानी फिर रहा है। झामुमो, कांग्रेस और आरजेडी के गठबंधन वाली हेमंत सोरेन सरकार ने आरक्षण, नियोजन नीति और स्थानीय नीति जैसे तीन ऐसे फैसले किये, जो अगर लागू हो जाते तो झारखंड के आदिवासियों-पिछड़ों और अनुसूचित जातियों-जनजातियों में हेमंत सोरेन की पैठ और पकड़ मजबूत हो जाती।

लेकिन, तीनों फैसलों के लागू हो पाने पर अब प्रश्नचिह्न लग गया है। वैसे स्थानीयता और नियोजन नीति पर बार बार यह अड़ंगा क्यों लगता है, यह सवाल सिर्फ राजनीतिक नहीं है। दरअसल 1932 का खतियान एक ऐसा मुद्दा है, जिसकी वजह से वर्तमान झारखंड में आकर बसे अनेक लोगों को अपना स्थानीय अस्तित्व खतरे में दिखने लगता है।

लंबे समय तक चले अलग राज्य आंदोलन की मुख्य मांग भी यही थी क्योंकि दूसरे प्रदेशों से आये लोगों ने यहां की नौकरियों और जमीनों पर लगातार अपना पकड़ मजबूत कर ली। लिहाजा साल 2000 में बिहार से अलग होकर अलग झारखंड राज्य बनने के बाद से ही स्थानीय नीति की मांग होती रही है। तत्कालीन मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने नियोजन नीति का आधार 1932 को बनाया तो राज्य भर में दंगे जैसे हालात हो गए।

कई लोगों की प्राण हानि हुई। मामला कोर्ट में गया तो कई कमियों का उल्लेख करते हुए अदालत ने इसे संविधान सम्मत नहीं माना। नतीजा हुआ कि स्थानीय नीति रद्द हो गई। डेढ़ दशक तक ठंडे बस्ते में पड़े रहने के बाद 2014 में रघुवर दास के नेतृत्व में बनी भाजपा सरकार ने फिर स्थानीय नीति बनाने की कोशिश की। तब भाजपा के साथ रहे विधायक सरयू राय को इसकी ड्राफ्टिंग की जिम्मेवारी दी गई। रघुवर ने जो नीति बनाई, उसमें 1985 को कट आफ ईयर माना गया।

यानी झारखंडी कहलाने की शर्त 1985 रखी गई। इसी आधार पर पांच साल तक झारखंड में काम सुचारू रूप से चलता रहा, लेकिन 1932 के आधार पर स्थानीय नीति की चिंगारी भी समानांतर सुलग रही थी। 2019 में रघुवर दास की सरकार जाने के बाद हेमंत सोरेन को सत्ता मिली तो उन पर 1932 के खतियानी को ही झारखंडी बनाने का दबाव बढ़ने लगा।

पहले तो उन्होंने यह कह कर साफ मना कर दिया कि 1932 को आधार बना कर स्थानीय नीति बनाने में कानूनी पेंच हैं, लेकिन अपने पक्ष में वोटरों को लामबंद करने के लिए उन्होंने पिछले ही साल 1932 को ही आधार बना कर स्थानीय नीति का प्रस्ताव विधानसभा से पास करा दिया। इसे अपनी बड़ी उपलब्धि के रूप में उन्होंने प्रचार भी खूब किया।

खतियानी जोहार यात्रा निकाली और जिलों में जाकर अपनी सरकार की इस बड़ी उपलब्धि को लोगों तक पहुंचाने लगे। राज्यपाल ने विधेयक को जैसे ही लौटाया, सरकार की हवा निकल गई। अह हालत यह कि जिनके लिए सरकार ने ये फैसले लिये थे, अब वे ही हेमंत सोरेन के खिलाफ खड़े हो गए हैं।

झारखंड के आदिवासी-मूलवासी समाज के लोगों को अधिकाधिक नौकरी देने के लिए सोरेन की सरकार ने नई नियोजन नीति बनाई। हाईकोर्ट ने इसे भी खारिज कर दिया। अब वही युवा, जो हेमंत सोरेन के कसीदे पढ़ने में मशगूल थे, उनके खिलाफ प्रदर्शन नारेबाजी कर रहे हैं। उनका घेराव कर रहे हैं। दूसरी तरफ फाइलों को लौटाने वाले राज्यपाल रमेश बैस चुनाव आयोग से आये लिफाफा को चिपका हुआ छोड़कर अन्यत्र स्थानांतरित हो चुके हैं।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button