पहले अडाणी प्रकरण और उसके बाद राहुल गांधी की सदस्यता का मुद्दा भाजपा के लिए कुछ हद तक अप्रत्याशित परिणाम ले आया है। इसके बीच ही लक्षद्वीप के सांसद की लोकसभा सदस्यता बहाल होने का घटनाक्रम भी यह दर्शाता है कि लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला यूं ही विपक्ष के निशाने पर नहीं आये हैं।
इसलिए जो विपक्षी एकता अचानक बनती हुई दिख रही है, उसमंर भाजपा के चाणक्य की कम भूमिका नहीं है। विरोधियों को धूल चटाने और कमजोर कड़ी को तोड़ने की चाल इस बार उल्टी पड़ गयी है। 14 गैर- भाजपा दलों ने कानून प्रवर्तन विभागों के मनमाने इस्तेमाल को लेकर भी उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की है।
हालांकि विपक्षी खेमे में मौजूद दल हमेशा एकता पर जोर देने की बात करते हैं लेकिन अगले साल लोकसभा चुनाव तक भाजपा के खिलाफ इसे विपक्ष के एक संयुक्त मोर्चे के रूप में तैयार होने की संभावना से अभी नहीं बनी है। कई राजनीतिक दलों की हैसियत देश की पुरानी पार्टी के करीब पहुंच रही है ऐसे में बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने कहा कि कांग्रेस को उन जगहों पर पीछे हो जाना चाहिए जहां क्षेत्रीय दल मजबूत हैं।
उन्होंने हाल ही में कहा, एक बात स्पष्ट है जैसा कि हमने पहले भी कहा है कि जहां भी क्षेत्रीय दल मजबूत हैं, उन्हें मुख्य भूमिका में होना चाहिए और कांग्रेस के लोगों को यह बात समझनी चाहिए। समाजवादी पार्टी (सपा) के प्रमुख अखिलेश यादव ने भी कहा कि कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों को आगे रखना चाहिए और फिर चुनाव लड़ना चाहिए क्योंकि उनके मुताबिक तभी भाजपा के खिलाफ लड़ाई जीती जा सकती है।
विभाजित या एकजुट विपक्ष का मिथक कोई मायने नहीं रखता क्योंकि अगर हम आगामी विधानसभा चुनावों वाले राज्य जैसे कि राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ पर गौर करें तो इन राज्यों में क्षेत्रीय दलों की मजबूत उपस्थिति नहीं है। कुछ राज्यों में जहां क्षेत्रीय दलों का दबदबा है वहां कांग्रेस से हाथ मिलाने का विचार उपयुक्त नहीं होगा।
कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने कहा है कि विपक्षी दलों का राहुल गांधी के समर्थन में आना यह दिखाता है कि गैर-भाजपा दलों का साथ अच्छा है। ऐसे कई उदाहरण होंगे जब हम (कांग्रेस) थोड़ा पीछे हटेंगे और ऐसे भी हालात होंगे जहां हम एक बड़ा हिस्सा चाहते हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि हम एक साथ चुनाव लड़ेंगे।
जनता दल (यूनाइटेड) के प्रवक्ता, राजीव रंजन प्रसाद ने कहा, मेरा मानना है कि कुछ राजनीतिक दल संयुक्त मोर्चे के गठन में एक बड़ी अड़चन बनेंगे लेकिन भाजपा से लड़ने के लिए एक साथ आना अपरिहार्य है। भारत जोड़ो यात्रा के बाद कांग्रेस के दोबारा उभार की बातें बेतुकी साबित हुईं, क्योंकि पार्टी त्रिपुरा में बुरी तरह से हार गई जबकि माकपा के साथ गठबंधन भी किया गया था।
क्षेत्रीय दलों के पास सुरक्षा के लिए अपना क्षेत्र है इसलिए कांग्रेस को अपनी महत्वाकांक्षाओं से समझौता करना पड़ सकता है। सपा, तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) जैसे प्रमुख क्षेत्रीय दलों ने दोनों राष्ट्रीय दलों से दूरी बनाए रखने पर जोर दिया है और गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेसी विपक्षी मोर्चे के बारे अपनी प्राथमिकता दिखाते हुए बात की है।
इस महीने की शुरुआत में, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी घोषणा की कि तृणमूल 2024 के आम चुनावों में अकेले उतरेगी। लेकिन सच्चाई यही है कि किसी भी गैर-कांग्रेसी मोर्चे के सफल होने की कोई संभावना नहीं है। ऐसे सभी दलों के पास अपने दम पर चुनाव जीतने की ताकत नहीं है।
गौर करने वाली बात यह भी है कि कांग्रेस ने अभी तक खुद को किसी विपक्षी मोर्चे के मुख्य दल के रूप में पेश नहीं किया है लेकिन पार्टी के महासचिव जयराम रमेश ने कहा कि कांग्रेस के बिना कोई विपक्ष संभव नहीं है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने भी कांग्रेस के बिना गठबंधन के विचार को खारिज कर दिया।
अपने 70वें जन्मदिन के मौके पर आयोजित एक जनसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, कांग्रेस के बिना गठबंधन को खारिज कर देना चाहिए, क्योंकि यह सफल नहीं होगा। उन्होंने सभी राजनीतिक दलों से भाजपा का विरोध करने का अनुरोध करते हुए कहा है कि वे इस सरल चुनावी गणित को समझें और एकजुट हों।
अडाणी प्रकरण ने भाजपा की एकमात्र नेतृत्व को उस सवाल के सामने खड़ा कर दिया है, जिससे उनका सामना पहले कभी नहीं हुआ था। यह एक स्वाभाविक सवाल भी है कि जब पूरे देश गरीब हो रहा है तो सिर्फ एक उद्योगपति कैसे शीर्ष पर पहुंच गया। इस मुद्दे पर दूसरे मुद्दों की तरह चुप्पी साधकर शायद इस बार श्री मोदी बच नहीं सकेंगे। भले ही वह यह बयान दे रहे हैं कि सारे भ्रष्टाचारी एक मंच पर आ गये हैं लेकिन कोलकाता में ममता बनर्जी की भाजपा वाशिंग मशीन का तर्क आम मतदाता को ज्यादा बेहतर तरीके से समझ में आ रहा है।