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संसद में गतिरोध आखिर जनता का नुकसान

हिंडनबर्ग ने सही लिखा या गलत, यह बाद की बात है। इसी बात पर सरकार और विपक्ष दोनों ही चर्चा पर अड़े हुए हैं। दोनों पक्षों को अब भी यह बात समझ में क्यों नहीं आती है कि इसके पीछे अंततः जनता का ही पैसा बर्बाद हो रहा है।

सदन के संचालन का खर्च कौन भी निर्वाचित जनप्रतिनिधि अपनी जेब से तो नहीं देता है। सारी सुख सुविधाएं जनता के पैसे से लेने के बाद भी जनता के मुद्दों पर बार बार पीछे धकेलने की यह प्रवृत्ति कोई राष्ट्रप्रेम तो नहीं हो सकती। सत्ता पक्ष की तरफ से पहले राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा कराने की बात हो रही है।

दूसरी तरफ विपक्ष यह मांग कर रहा है कि इस मुद्दे पर संयुक्त संसदीय समिति जांच करे अथवा किसी जज से पूरे मामले की जांच करायी जाए। सदन के बाहर राहुल गांधी ने गंभीर बात यह कह दी है कि नरेंद्र मोदी यह नहीं चाहते कि सदन के रिकार्ड में अडाणी से संबंधित मामला आये। इसलिए वह चर्चा को रोक रहे हैं।

आरोप सही है अथवा गलत, इस मुद्दे को टालकर भी सदन के काम काज को आगे बढ़ाया जा सकता है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि इससे पहले भी राफेल के मुद्दे पर सदन में गतिरोध हुआ था। सुप्रीम कोर्ट ने बाद में इस मुद्दे पर राहुल गांधी के दावों को नकार दिया।

यह अलग बात है कि फ्रांस में इसकी अलग से जांच अभी जारी है। वैसे वैश्विक स्तर पर देखें तो ऐसे राजनीतित्रों वाले भ्रष्टाचार के मामलों में ठोस कार्रवाई बहुत कम हो पाती है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से लेकर देश से भागे ब्राजिल के पूर्व राष्ट्रपति के मामले इसमें एक जैसे नजर आते हैं।

भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ पाकिस्तान से ईलाज के लिए विदेश गये तो आज तक वापस नहीं लौटे जबकि वहां इमरान खान की सरकार जा चुकी है। देश के अंदर की बात करें तो विपक्ष का यह आरोप दमदार है कि जिन सरकारी एजेंसियों को इस दिशा में काम करना है, वे दरअसल सरकार की कठपुतली बनकर काम कर रही है।

इस आरोप को यूंही नकारा नहीं जा सकता क्योंकि सेबी ने एक तरफ सहारा समूह पर कार्रवाई की है तो अडाणी समूह की जांच से इसी एजेंसी को क्या परहेज है। एक औद्योगिक घराने को दिल खोलकर कर्ज देने की मंशा भी संदेह के घेरे में है। वरना आम आदमी को बैंकों से कर्ज लेने का जो कड़वा अनुभव है, वह अडाणी को कर्ज देने के मामले से कतई मेल नहीं खाता है।

कांग्रेस ने मंगलवार को आरोप लगाया कि सरकार ने संसद के मौजूदा गतिरोध को खत्म करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया।पार्टी महासचिव जयराम रमेश ने यह भी कहा कि विपक्ष चाहता है कि संसद चले, लेकिन मोदी सरकार डरी हुई है।

हो सकता है कि यह बात सही भी हो लेकिन खुद प्रधानमंत्री ने इस मुद्दे पर इशारों ही इशारों में राफेल डील का उल्लेख कर यह कहा है कि सच तो सामने आ ही गयी। वह सुप्रीम कोर्ट द्वारा राफेल मामले को खारिज किये जाने का संदर्भ दे रहे थे।

अनुमान है कि विपक्ष भी सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच जारी खींचतान का राजनीतिक लाभ उठाना चाहती है। दूसरी तरफ यह भी स्पष्ट है कि भाजपा को सत्ता जाने का डर सताता है वरना दिल्ली में मेयर के चुनाव को लेकर उप राज्यपाल के कंधे पर बंदूक रखकर नहीं चलायी जाती।

तीन बार वहां मेयर का चुनाव क्यों स्थगित हुआ है, यह आम आदमी समझ रहा है। लेकिन देश की राजनीतिक व्यवस्था इस कदर लचर है कि अडाणी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में भी विपक्ष अपना राजनीतिक अवसर तलाश रहा है। कांग्रेस ने इस मुद्दे पर राहुल गांधी को आगे कर अगले चुनाव की चाल चली है।

कई विपक्षी दल इस चाल को अच्छी तरह समझ रहे हैं और वे भाजपा के खिलाफ होने के बाद भी कांग्रेस के साथ खड़े दिखना नहीं चाहते हैं। कुल मिलाकर एक महत्वपूर्ण विषय भी देश में चुनावी राजनीति की भेंट चढ़ता जा रहा है। संसद पर कोई एक पक्ष पीछे हटकर भी अपनी बात बाद में पूरी कर सकता है लेकिन चुनावी रन बटोरने की लालच ने इस राजनीति का बंटाधार कर रखा है।

नतीजा है कि जनता के पैसे से संचालित होने वाली संसद की कार्यवाही हंगामे की भेंट चढ़ रही है। ऐसे समय नष्ट होने वाले मामलों में अब क्या जनता को ही ध्यान देना चाहिए क्योंकि उनके निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के लिए चुनाव के बाद जनता नहीं पार्टी और राजनीति महत्वपूर्ण हो जाती है।

जनता को इसलिए सतर्क और सक्रिय होना चाहिए क्योंकि कोरोना काल ने यह स्पष्ट कर दिया है कि कोई भी सरकार हो उसकी पूरी ठाठ दरअसल जनता के पैसे से ही चलती है। अब जिसका पैसा है, उसे अपना पैसा बचाने पर पहल तो करना चाहिए।

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