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वीडियो लीक होने की जिम्मेदारी कब तय होगी

चुनाव आने के दौरान अक्सर ही वीडियो लीक होने लगते हैं। बहुत ध्यान से और बार बार देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि इन्हें सार्वजनिक मंचों पर जारी करने का असली मकसद राजनीतिक लाभ होता है। अजीब बात है कि यह वीडियो किसने लीक किया, इस पर कभी बहस नहीं होती और न ही उस व्यक्ति अथवा चेहरे की पहचान होती है जो अपनी पहचान छिपाकर ऐसे राजनीतिक मकसदों का हिस्सेदार बनता है।

वीडियो पर चर्चा करने के पहले ऑडियो लीक होने को याद कर लें। टाटा के प्रमुख रतन टाटा के साथ नीरा राडिया की बात-चीत का एक ऑडियो भी इसी तरीके से लीक हुआ था। इस पर अदालती प्रक्रिया में कोई प्रगति नहीं हुई और न ही यह साफ हो पाया कि आखिर किस सरकारी एजेंसी ने निजता के अधिकार का हनन कर उस बातचीत को सुना था, रिकार्ड किया था और बाद में उसे सार्वजनिक इस्तेमाल के लिए जारी कर दिया था।

यूं तो इस किस्म की दखलंदाजी के अनेक तकनीकी उपकरण अब विभिन्न सरकारी एजेंसियों के पास मौजूद हैं। हर राज्य में पुलिस के पास अब जीएसएम इंटरसेप्टर हैं। खासकर नक्सलवाद प्रभावित इलाकों में ऐसे उपकरण अधिक संख्या में है। फिर भी उनका सदुपयोग हो रहा है अथवा दुरुपयोग, इस पर आज तक खुली बहस नहीं हो पायी है।

वर्तमान में पेगासूस का मामला भी सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है। इस मामले का उल्लेख इसलिए जरूरी है क्योंकि इस विषय पर सरकार ने संसद में पेगासूस के होने से इंकार करने के बाद सुप्रीम कोर्ट को राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देते हुए जानकारी देने से इंकार कर दिया है। शीर्ष अदालत द्वारा गठित तकनीकी जांच कमेटी ने यह पाया है कि कुछ मोबाइलों में यह स्पाईवेयर मौजूद था।

इसलिए यह लगभग तय हो गया है कि भारतीय सेना को छोड़कर किसी अन्य सरकारी एजेंसी ने इसकी खरीद की है लेकिन वह एजेंसी कौन है, यह स्पष्ट नहीं है। अब सत्येंद्र जैन के जेल में बंद होने के दौरान होने वाली निगरानी का वीडियो सामने आया है। इस पर अदालत ने ईडी को कारण बताओ नोटिस भी जारी किया है।सत्येंद्र जैन की मालिश का वीडियो लीक होने की वजह से बवाल

दरअसल कारण बताओ नोटिस और बाद में उसके उत्तर में दिया गया जबाव भी यह स्पष्ट नहीं कर पाता कि सरकारी सेवा में होने के बाद भी गोपनीयता की शर्त का उल्लंघन करने वाला व्यक्ति आखिर कौन था।

झारखंड की बात करें को जमशेदपुर के विधायक सरयू राय ने कुछ अरसा पहले मुख्यमंत्री आवास के पास अनधिकृत तौर पर खोले गये एक पुलिस जासूसी केंद्र का उल्लेख किया था।

पहले तो सरकार की तरफ से इस आरोप से इंकार किया गया था लेकिन बाद में यह स्पष्ट हो गया कि वाकई ऐसे एक केंद्र वहां स्थापित था, जो लोगों के फोन पर होने वाली बातचीत को सुनने का काम किया करता था। लेकिन यह अनधिकृत कार्रवाई किसके निर्देश पर हुई थी, यह सवाल अनुत्तरित रह गया। यही सरकारी व्यवस्था की खामियां हैं, जिन्हें सत्ता पाने वाला कोई भी राजनीतिक दल खत्म करने की पहल नहीं करता और उनका भी मकसद वही होता है जो पहले से होता आया है।

यह दरअसल कानून के छेद से होने वाली गड़बड़ियां हैं, जिनके सहारे लोगों की निजता के अधिकार का हनन होता है। पेगासूस के मामले पर सार्वजनिक हो चुकी सूचनाओं पर गौर करें तो सरकार से टकराने वाले सीबीआई के निदेशक तथा सरकारी फैसलों से इत्तेफाक नहीं रखने वाले एक चुनाव आयुक्त के अलावा वर्तमान मोदी सरकार के एक मंत्री भी इसके दायरे में आये थे। साफ है कि इनका कोई आपराधिक रिश्ता अथवा नक्सलवादी संपर्क नहीं था।

इनके फोन पर भी अगर सेंधमारी हुई तो उसका मकसद राजनीतिक ही था। अब सत्येंद्र जैन के जेल के कमरे में लगे सीसीटीवी में मालिश का वीडियो कहां से और किसने जारी किया, इसकी जांच एक लंबी प्रक्रिया है। वरना आम तौर पर ऐसी गलतियों के लिए किसी एक अधिकारी को  निलंबित कर मामले की फाइल को बंद कर दिया जाता है।

दूसरी तरफ इस किस्म के राजनीतिक हथियारों का प्रयोग करने वाले यह भूल जाते हैं कि कभी उनका भी नंबर आयेगा। इस किस्म की अनधिकृत जासूसी का एक मकसद अपने राजनीतिक विरोधियों को डराना तथा उनकी रणनीति को जान लेना होता है। इससे भी कोई स्थायी लाभ नहीं होता, इसे जानते हुए भी लोग बार बार इसे दोहराते हैं।

वैसे चुनावी मौके पर ही ऐसा क्यों होता है, इस बारे में अब शायद जनता की समझदारी बढ़ चुकी है। इसलिए अभी दिल्ली के एक विधायक के साथ हुई मार-पीट का वीडियो भाजपा द्वारा जारी किये जाते ही इसकी असलियत क्या है, यह वहां की जनता न सिर्फ समझ गयी बल्कि लोगों ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया भी दी है। इन सभी के बीच सरकारी मुलाजिमों की जिम्मेदारी तय नहीं होने की छूट कहीं न कहीं देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को प्रभावित करती है, इसे स्वीकारना होगा।

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