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पेगासूस की जांच पर चुप्पी को क्या समझें

एक अमेरिकी अदालत के फैसले ने एक इज़रायली कंपनी को व्हाट्सएप के माध्यम से लक्षित व्यक्तियों के फोन पर स्पाइवेयर सूट पेगासूस को गुप्त रूप से इंस्टॉल करने के लिए उत्तरदायी ठहराया, जिसने 2021 में भारत में इस तरह के निगरानी के आरोपों के सामने आने पर केंद्र की संदिग्ध निष्क्रियता पर ध्यान केंद्रित किया है।

कैलिफोर्निया के उत्तरी जिले के लिए अमेरिकी जिला न्यायालय ने फैसला सुनाया कि एनएसओ ग्रुप टेक्नोलॉजीज ने कंप्यूटर धोखाधड़ी और दुरुपयोग के खिलाफ संघीय और राज्य दोनों कानूनों का उल्लंघन किया है।

व्हाट्सएप ने अक्टूबर 2019 में एनएसओ ग्रुप पर मुकदमा दायर किया, जिसमें आरोप लगाया गया कि उसके सिस्टम का इस्तेमाल इज़रायली कंपनी ने अपने उपयोगकर्ताओं की निगरानी के लिए लगभग 1,400 मोबाइल फोन और उपकरणों पर मैलवेयर लगाने के लिए किया था। सारांश निर्णय में, अदालत ने व्हाट्सएप से सहमति व्यक्त की कि उसके एप्लिकेशन को व्हाट्सएप इंस्टॉलेशन सर्वर या डब्ल्यू आई एस नामक संशोधित संस्करण बनाने के लिए रिवर्स-इंजीनियर या डिकंपाइल किया गया था।

इस फैसले की पृष्ठभूमि में, भारत में यह सवाल उठ रहा है कि 2022 में न्यायालय द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ समिति द्वारा भारत के सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत की गई रिपोर्ट का क्या होगा। तत्कालीन भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई), एन.वी. रमना ने पैनल के निरीक्षण न्यायाधीश, न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) आर.वी. रवींद्रन की रिपोर्ट के कुछ पैराग्राफ पढ़े थे।

रिपोर्ट में कहा गया है कि तकनीकी समिति को पेगासूस की मौजूदगी के बारे में कोई निर्णायक सबूत नहीं मिला, लेकिन जांचे गए 29 फोन में से पांच में किसी तरह का मैलवेयर था। रिपोर्ट अभी सार्वजनिक नहीं की गई है। भले ही कोई प्रभावी सुनवाई या अनुवर्ती कार्रवाई न हुई हो, लेकिन यह नहीं भुलाया जा सकता है कि सीजेआई रमना ने खुली अदालत में देखा था कि सरकार ने समिति की जांच में सहयोग नहीं किया।

यह मोदी शासन का विशिष्ट आचरण था, जिसने बार-बार यह प्रदर्शित किया है कि जब भी आरोप सामने आते हैं तो चुप्पी, इनकार और अस्पष्टता ही इसका सामान्य जवाब है। इसने पत्रकारों, कार्यकर्ताओं, डॉक्टरों और अदालत के कर्मचारियों के फोन स्पाइवेयर के निशाने पर होने के खुलासे की जांच करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।

इसने एक अजीब दावा किया कि देश में ऐसे कठोर कानून हैं कि अवैध निगरानी संभव नहीं है। इसने यह अस्थिर स्थिति अपनाई कि यह स्वीकार करना कि इसकी एजेंसियों के पास कोई विशेष सॉफ़्टवेयर है, राष्ट्रीय सुरक्षा को ख़तरे में डाल देगा।

यह सब, संसद में स्वीकार करने के बावजूद कि उसे पता था कि कुछ उपयोगकर्ताओं को व्हाट्सएप के माध्यम से पेगासूस द्वारा लक्षित किया जा रहा है। इसने उन विश्वसनीय रिपोर्टों का जवाब नहीं दिया कि पेगासूस का इस्तेमाल असंतुष्टों को फंसाने के लिए कंप्यूटर में सबूत लगाने के लिए किया जा सकता है।

एक न्यायिक निर्णय के आलोक में, भले ही वह विदेशी हो, कि एनएसओ समूह अपने ग्राहकों, पूरी तरह से सरकारी संस्थाओं द्वारा अपने स्पाइवेयर के उपयोग के लिए उत्तरदायी है, समय आ गया है कि सीलबंद रिपोर्ट खोली जाए और गहन जांच शुरू की जाए। सरकार को यह स्पष्ट करना चाहिए कि उसके पास निगरानी सॉफ़्टवेयर है या नहीं।

अन्यथा, नागरिक अवैध निगरानी के लिए और भी अधिक असुरक्षित हो जाएंगे। लेकिन सरकार की जिम्मेदारी बस यहीं पर खत्म नहीं होती और सवालों के उठाये जाने का क्रम आगे भी जारी रहेगा। हैरानी इस बात पर है कि आम तौर पर हर बात पर प्रतिक्रिया देने वाले भाजपा नेताओं ने भी इतने गंभीर विषय पर अब तक कुछ भी नहीं कहा है। सरकार समर्थक मीडिया भी निजता का हनन करने वाली इस कार्रवाई पर बहस से भाग रही है। वरना दूसरे गैर जरूरी मुद्दों पर लगातार बहस जारी रहती है। दरअसल भारतीय सेना का यह कहना कि इजरायली कंपनी से उसका कोई रिश्ता नहीं रहा है, सरकार के लिए परेशानी पैदा करने वाली बात है।

आम तौर पर राष्ट्रीय सुरक्षा की दलील के पीछे छिपने वाली सरकार अब कैसे यह साबित करेगी कि इसमें वाकई भारतीय सुरक्षा का कौन सा मामला जुड़ा है जिससे भारतीय सेना इत्तेफाक नहीं रखती। साथ ही यह साबित हो जाता है कि पेगासूस की खरीद किसी दूसरी सरकारी एजेंसी द्वारा की गयी है और इसका इस्तेमाल अब भी हो रहा है अथवा नहीं, यह बताने से सरकार की परेशानी बढ़ सकती है। आम तौर पर हर बात पर पारदर्शिता का दावा करने वाली मोदी सरकार ऐसे विषय पर पहले से भी चुप्पी साधती आयी है। हैरानी इस बात को लेकर भी है कि देश की न्यायपालिका ने भी इस पर आंख बंद कर लिये हैं जबकि अंतर्राष्ट्रीय जांच में वैसे प्रमुख भारतीय नामों का भी खुलासा हुआ था, जिनमें मोबाइल में यह स्पाईवेयर डाले गये थे।

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