भाजपा ने इसे खुले तौर पर स्वीकार तो नहीं किया है पर बंटेंगे तो कटेंगे और एक है तो सेफ है का नारा दरअसल हिंदू वोट बैंक को एकजुट रखने की कवायद ही है।
महाराष्ट्र और उत्तरप्रदेश के लोकसभा चुनाव परिणामों ने भारतीय जनता पार्टी को यह एहसास करा दिया है कि जब ओबीसी और आदिवासी मतदाता छिटक जाते हैं तो उसका भाजपा पर कितना उल्टा असर होता है। इसी वजह से महाराष्ट्र और झारखंड में इसी मुद्दे को उभारा गया है।
इसका कितना असर होगा, यह तो चुनाव परिणाम ही बतायेगा। दूसरी तरफ पिछले हफ़्ते तेलंगाना में कांग्रेस सरकार द्वारा जाति सर्वेक्षण शुरू किया जाना 2023 के विधानसभा चुनाव के वादे को पूरा करने की दिशा में एक कदम है। पार्टी के चुनावी घोषणापत्र के अनुसार, यह सर्वेक्षण पिछड़े वर्गों (बीसी) के लिए आरक्षण की मात्रा बढ़ाने का आधार बन सकता है।
वर्तमान में, पिछड़े वर्गों की पाँच श्रेणियों के अंतर्गत 112 समुदायों को शिक्षा और रोजगार में 29 फीसद कोटा प्राप्त है, जिसमें सामाजिक और शैक्षणिक रूप से मुस्लिम पिछड़े वर्गों के लिए 4 फीसद शामिल है। यह सर्वेक्षण ऐसे समय में किया जा रहा है जब अखिल भारतीय स्तर पर इस तरह की कवायद की माँग ज़ोर पकड़ रही है। पिछड़े वर्गों के लिए सकारात्मक कार्रवाई के क्षेत्र में सबसे आगे रहने वाले तमिलनाडु में राजनीतिक दल इस मुद्दे को उठा रहे हैं, हालाँकि इस बात पर विभाजित हैं कि राज्य या केंद्र को यह कवायद करनी चाहिए।
चुनावी राज्य महाराष्ट्र में विपक्षी महा विकास अघाड़ी ने जाति आधारित जनगणना का वादा किया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कहा था कि दलितों के कल्याण के लिए की गई जाति जनगणना ठीक है, लेकिन भाजपा इस विचार के प्रति उदासीन है। केंद्र सरकार ने यह भी कहा था कि सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना 2011 के जातिगत आंकड़ों को सार्वजनिक करने का उसका कोई प्रस्ताव नहीं है।
दरअसल, कर्नाटक में, जहां सामाजिक-आर्थिक और शैक्षणिक सर्वेक्षण पर अधिकांश काम लगभग 10 साल पहले किया गया था, मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को अंतिम रिपोर्ट सौंपे जाने के बावजूद सर्वेक्षण रिपोर्ट को अभी तक सार्वजनिक नहीं किया गया है। जाति-आधारित सर्वेक्षण का विचार ओबीसी, एससी और एसटी के लिए आरक्षण में सुप्रीम कोर्ट द्वारा 50 फीसद की सीमा को स्वतः हटाने की प्रस्तावना के रूप में पेश किया जा रहा है।जून में, पटना उच्च न्यायालय ने बिहार में दो अधिनियमों को रद्द कर दिया, जिसमें
शिक्षा और सरकारी नौकरियों में बीसी, अति बीसी, एससी और एसटी के लिए कोटा में वृद्धि की परिकल्पना की गई थी। नीतीश कुमार सरकार ने कानून बनाने से पहले जाति सर्वेक्षण कराया था।
उच्च न्यायालय ने कानूनों को रद्द करते हुए पर्याप्त प्रतिनिधित्व के सिद्धांत पर जोर दिया था। तमिलनाडु के अधिकांश पिछड़े वर्गों में वन्नियारों के लिए 10.5 फीसद आंतरिक कोटा के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास उच्च न्यायालय के इस निष्कर्ष को बरकरार रखा था कि 2021 अधिनियम के तहत समुदाय को आरक्षण “पुराने डेटा” पर आधारित था।
डेटा का संकलन और प्रस्तुति यांत्रिक रूप से मात्रा में किसी भी वृद्धि का मार्ग प्रशस्त नहीं करेगी, 50 फीसद की सीमा को तो छोड़ ही दें। गरीबी, जाति, व्यवसाय और निवास स्थान जैसी विशेषताओं के विश्लेषण से मात्रा बढ़ाने के किसी भी कदम को उचित ठहराया जाना चाहिए।
इसके अलावा, जैसा कि अनुच्छेद 16(4) में है, केवल उन समुदायों को नौकरी कोटा दिया जा सकता है जिनका सार्वजनिक सेवाओं में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व है। किसी भी राजनीतिक दल को यह धारणा नहीं बनानी चाहिए कि जाति जनगणना से ओबीसी आरक्षण में वृद्धि होगी। केंद्र को ओबीसी के बीच क्रीमी लेयर का निर्धारण करने में वार्षिक पैतृक आय की सीमा को भी सीमित करना चाहिए। अन्यथा, पिछड़े वर्गों में केवल सबसे उन्नत वर्ग ही आरक्षण का लाभ उठाते रहेंगे।
इससे भाजपा और भी दबाव में है। पूर्व में खुद प्रधानमंत्री मोदी ने महाराष्ट्र के चुनाव प्रचार में कांग्रेस पर झूठा वादा करने का आरोप लगाया था। जिसके जबाव में कांग्रेस ने कहा था कि कांग्रेस शासित राज्यों में जाकर जमीनी हकीकत को जान लेने की जरूरत है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने कहा है कि चुनावी वादों को पूरा करने के लिए सरकारी कोष पर दबाव बढ़ा है।
इसके बाद भी यह काम किया जा रहा है। दरअसल पहले से ही आबादी के अनुपात में सरकारी भागीदारी का सवाल उठाकर राहुल गांधी ने निश्चित तौर पर हिंदू वोटरों के बहुमत के वर्ग को नये सिरे से सोचने पर बाध्य कर दिया है। इसका असर भी भाजपा के खिलाफ हुआ है, इसे भाजपा अंदर ही अंदर स्वीकारती है। इसके बाद भी जाति जनगणना पर इतनी आसानी से सहमति व्यक्त करना, उसके राजनीतिक हित में नहीं दिखता। दूसरी तरफ अन्य पिछड़ी जातियों और आदिवासियों के साथ साथ दलितों का पढ़ा लिखा वर्ग इस सामाजिक आर्थिक असमानता को समझ रहा है। इसी वजह से यह कांटा फंसा है।