गुटबाजी ने झारखंड में कांग्रेस को बिखेर कर रख दिया
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पार्टी का अपना संगठन टूट सा गया
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दिल्ली की मर्जी पर नेतागिरी से हानि
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ग्रासरूट स्तर पर कार्यकर्ताओं की कमी
राष्ट्रीय खबर
रांचीः गणेश परिक्रमा की राजनीति का अंतिम हश्र क्या होता है, यह झारखंड कांग्रेस को देखकर समझा जा सकता है। दरअसल दिल्ली दरबार के आसरे ही राजनीति चमकाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने का नतीजा है कि कभी देश की सबसे जीवंत पार्टी के पास झारखंड की सभी सीटों पर लड़ने के लिए प्रत्याशी भी नहीं बचे हैं। हाल के दिनों की बात करें तो इस ताबूत में अंतिम कील आरपीएन सिंह के कार्यकाल में ठोंकी गयी।
सारा कुछ मटियामेट कर आरपीएन सिंह अब भाजपा खेमा में शामिल हो चुके हैं। इसी तरह कई अन्य राष्ट्रीय नेताओं ने भी मौके की नजाकत को भांपते हुए अपना खेमाबदल कर लिया है। दूसरी तरफ जनाधार वाले नेताओं की लगातार होने वाली उपेक्षा की वजह से अब कांग्रेस संगठन का पूरे राज्य में बहुत बुरा हाल है।
लोकसभा चुनाव के वक्त पार्टी के एक कद्दावर नेता मेरे इस तर्क से काफी नाराज हो गये थे कि कांग्रेस के पास तो सभी 14 सीटों पर लड़ने के लिए प्रत्याशी भी नहीं है, जो कांग्रेस संगठन के वास्तविक सच को दर्शाती है। अब झारखंड विधानसभा के चुनाव में भी कमोबेशी यही स्थिति दिख रही है। पारंपरिक सीटों पर भाजपा जिस तरीके से कब्जा रखती है और दूसरी पीढ़ी के नेताओं को स्थापित करती है, यह काम कांग्रेस ने नहीं किया था।
जिसका खामियजा अब उसे भुगतना पड़ रहा है। प्रदेश कमेटी तक में अपने लोगों को ही एडजस्ट करने की प्रवृत्ति ने भी अनेक सक्रिय नेताओं को पार्टी से या तो अलग कर दिया और वे दूसरे दलों में चले गये। इसके अलावा जो पार्टी नहीं छोड़ सके, वे अपने घरों में चुपचाप बैठ गये। नतीजा था कि कांग्रेस संगठन की सक्रियता सिर्फ बयान जारी करने तक ही सीमित हो गयी।
वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष केशव महतो कमलेश और कार्यकारी अध्यक्ष बंधु तिर्की अपने संगठन को इस संकट से उबारने में जुटे हैं। सुबोध कांत सहाय, डॉ रामेश्वर उरांव जैसे कई नेता भी इसमें सक्रिय हैं पर विधानसभा चुनाव काफी करीब होने की वजह से टिकट वितरण के असंतोष का धुआं भी सबकी आंखों में जलन पैदा कर रहा है।
दूर जाने की जरूरत नहीं सिर्फ रांची जिला की सीटों पर भी गौर करें तो बदलाव दिख जाता है। कभी सारी सीटों पर कांग्रेस की जीत अथवा दमदार प्रत्याशी होने का रिकार्ड अब खत्म हो चुका है। जो सक्रिय हैं, उनमें से कई दूसरे संगठनों से आये हैं। ग्रासरूट स्तर पर पार्टी का झंडा ढोने वाले लगभग खत्म हो गये हैं।
भाजपा और कांग्रेस के बीच का यह संगठनात्मक फर्क ही कांग्रेस को पीछे धकेल रहा है। भाजपा एक तरफ पन्ना प्रमुख तक पैठ बनाकर चुनावी तैयारी कर चुकी है तो दूसरी तरफ कांग्रेस के नेता अब भी जोड़ तोड़ में ही जुटे हुए हैं। संगठन के नेता और सक्रिय कार्यकर्ता इस बात का एहसास नहीं कर पा रहे हैं कि बाहरी खिलाड़ियों से राजनीति का मैदान बार बार नहीं जीता जा सकता।