देश में अनेक ऐसे मामले चल रहे हैं, जो केंद्रीय एजेंसियों के हाथों में है। ईडी, सीबीआई और इनकम टैक्स की तरफ से अनेक लोगों के खिलाफ कार्रवाई हुई है। इनमें से कई लोग कई महीनों तक जेल में रहने के बाद जमानत पर बाहर आये हैं। दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और एक और पूर्व मंत्री सत्येंद्र जैन अब भी जेल में है।
इसके अलावा वैसे तीन दर्जन से अधिक नेता हैं, जिन पर केंद्रीय एजेंसियों ने केस दर्ज कर रखा है। इन मामलों में नियमित तौर पर कोई खास प्रगति होती हुई नजर नहीं आती है। इसी संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट का यह कहना राजनीतिक तौर पर प्रासंगिक है कि जमानत के अधिकार को खारिज नहीं किया जा सकता और जांच पूरी होने के पहले चार्जशीट दाखिल कर भी इस अधिकार को खत्म नहीं किया जा सकता है।
जस्टिस कृष्ण मुरारी और जस्टिस सीटी रविकुमार की पीठ ने जोर देकर कहा कि डिफ़ॉल्ट जमानत का अधिकार केवल एक वैधानिक अधिकार नहीं है, बल्कि एक मौलिक अधिकार है जो संविधान के अनुच्छेद 21 से निकला है। इसलिए, आरोपी व्यक्ति को स्वाभाविक तौर पर जमानत से वंचित करने के लिए केवल जांच पूरी करने से पहले आरोप पत्र दायर नहीं किया जा सकता है, अदालत ने इसे रेखांकित किया है।
पीठ ने यह भी कहा है कि रिमांड और हिरासत की प्रक्रिया, उनके व्यावहारिक अभिव्यक्तियों में, जांच प्राधिकरण और अभियुक्तों के बीच शक्तियों की एक बड़ी असमानता पैदा करती है। जबकि हमारे मन में कोई संदेह नहीं है कि गिरफ्तारी और रिमांड जांच प्राधिकरण के सुचारू कामकाज के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
न्याय प्राप्त करने के उद्देश्य से, हालांकि, एक शक्ति असंतुलन का संज्ञान होना भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। यस बैंक को धोखा देने के आरोपी रियल्टी डेवलपर संजय छाबड़िया की डिफॉल्ट जमानत अर्जी का निस्तारण करते हुए एक फैसले में यह टिप्पणी की गई। शीर्ष अदालत के समक्ष याचिका उनकी पत्नी द्वारा दायर की गई थी।
इधर मनीष सिसोदिया पर आरोप क्या है, यह जगजाहिर है पर साक्ष्य क्या है, यह सिर्फ जांच एजेंसियों को पता है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट की इस बात को सिर्फ एक ही मामले तक सीमित नहीं रखा जा सकता। दरअसल जिस मामले में शीर्ष अदालत ने यह कहा है, उसमें दलील दी गयी थी कि सीबीआई उसे कई पूरक चार्जशीट के बहाने 60 दिनों की वैधानिक सीमा से परे रिमांड में रखेगी। याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि जांच अभी भी चल रही है और शिकायत में आरोपी का नाम नहीं लिया गया है।
अदालत ने आरोपी को इस साल फरवरी में अंतरिम जमानत पर रिहा कर दिया था, जिसे आज के फैसले से निरपेक्ष कर दिया गया। पीठ ने याचिका की विचारणीयता पर सीबीआई की प्रारंभिक आपत्तियों को खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि यह संविधान द्वारा बड़े पैमाने पर व्यक्तियों और समाज की नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सौंपा गया है।
अदालत के मुताबिक यह नागरिक स्वतंत्रताएं, जो खुद को मौलिक अधिकारों के रूप में प्रकट करती हैं, वे हैं जो इस देश के लोगों को राज्य के साथ प्रभावी ढंग से बातचीत करने और लोगों और राज्य के बीच सामाजिक अनुबंध में सत्ता में समानता बनाए रखने की अनुमति देती हैं।
यदि यह न्यायालय इनकार करता है मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में तकनीकीताओं पर अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने के लिए, यह एक लहरदार प्रभाव पैदा करेगा जिसके परिणामस्वरूप एक निष्क्रिय सामाजिक अनुबंध होगा, जिसमें इस देश के लोग राज्य के एक मनमानी और बेरोकटोक अत्याचार के अधीन हो जाएंगे।
अदालत ने जोर देकर कहा है कि पहले जांच पूरी की जानी है, और उसके बाद ही निर्धारित अवधि के भीतर चार्जशीट या शिकायत दर्ज की जा सकती है, और ऐसा करने में विफलता सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत डिफ़ॉल्ट जमानत के वैधानिक अधिकार को सक्रिय करेगी।
शीर्ष अदालत ने पाया कि मौजूदा मामले में ट्रायल कोर्ट द्वारा तथ्यात्मक स्थिति को याद किया गया, जिसने अभियुक्त को डिफ़ॉल्ट जमानत देने के बजाय रिमांड जारी रखने के लिए यंत्रवत् रूप से अधूरी चार्जशीट को स्वीकार कर लिया।
जांच एजेंसी और ट्रायल कोर्ट, इस प्रकार, कानून के जनादेश का पालन करने में विफल रहे, और इस तरह से काम किया जो प्रकट रूप से मनमाना था और अभियुक्तों को गारंटीकृत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन था। इस बात से स्पष्ट है कि सुप्रीम कोर्ट देश के विभिन्न भागों में केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई और उससे जुड़े घटनाक्रमों से वाकिफ है। अब गुजरात में मानहानि के मामले में घटनाक्रम जिस तरफ बढ़ रहा है, यह साफ हो रहा है कि अंततः राहुल गांधी की मानहानि का मामला भी सुप्रीम कोर्ट में आयेगा। लिहाजा सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच पहले से जारी मतभेदों के असली कारण अब धीरे धीरे उजागर होते चले जा रहे हैं।