सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) को मुश्किल हालात में डाल दिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने गत सप्ताह एक उच्चस्तरीय समिति का गठन किया जिसकी अध्यक्षता सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश अभय मनोहर सप्रे को सौंपी गई है।
इस समिति को हालात का समग्र आकलन करना है जिसमें वे प्रासंगिक कारक शामिल हैं जिनके चलते हाल के दिनों से प्रतिभूति बाजार में उतार-चढ़ाव है। दूसरी तरफ अब यह सूचना भी बाहर आ रही है कि अपने कर्ज से उबरने के लिए अडाणी समूह को अंबुजा सीमेंट के शेयर बेचने पड़ सके हैं।
बार बार एक खास वर्ग यह बताने की कोशिश कर रहा है कि इस हिंडरबर्ग रिपोर्ट से अडाणी समूह को तात्कालिक नुकसान होने के बाद भी दरअसल कंपनी संकट से उबर रही है। लेकिन इसके बाद भी उन सवालों का उत्तर साफ साफ कोई नहीं दे रहा है कि आखिर इस शेयर बाजार की गतिविधियों पर नजर रखने वाली एजेंसियों अब तक क्या करती रही हैं।
यह प्रश्न इसलिए भी प्रासंगिक है क्योंकि विरोधी दलों में सेबी में भी अडाणी के एक रिश्तेदार के शामिल होने पर सवाल उठा दिया है। अब सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित कमेटी में भारतीय स्टेट बैंक के पूर्व चेयरमैन ओ पी भट्ट, इन्फोसिस के सह-संस्थापक नंदन नीलेकणी, बैंकर के वी कामत, सेवानिवृत्त न्यायाधीश जे पी देवधर तथा प्रतिभूति कानूनों के विशेषज्ञ अधिवक्ता सोमशेखर सुंदरेशन शामिल हैं।
माना जा रहा है कि यह यह समिति इस बात का आकलन करेगी कि क्या अदाणी समूह या अन्य कंपनियों के मामले में प्रतिभूति कानूनों के कथित उल्लंघन के मामलों में नियामकीय स्तर पर कुछ नाकामी रही है। समिति से यह भी अपेक्षा है कि वह भारतीय निवेशकों के संरक्षण के लिए नियामकीय ढांचे को मजबूत बनाने को लेकर भी कुछ सुझाव देगी।
यह तो स्पष्ट हो चुका है कि हाल के दिनों में अदाणी समूह के शेयरों के साथ जो भी हुआ उससे इतर भी निश्चित रूप से नियामकीय ढांचे में सुधार की गुंजाइश है लेकिन इस मामले से निपटने का यह सही तरीका नहीं है। सेबी संचालन ढांचे में सुधार को लेकर लगातार काम कर रहा है और उसने भी अतीत में इसके लिए विशेषज्ञ समिति का गठन किया है।
चूंकि नियामक अमेरिका के हिंडनबर्ग रिसर्च (जिसने अदाणी समूह के शेयरों पर शॉर्ट पोजिशनिंग से कमाई की) द्वारा लगाए गए आरोपों के विभिन्न पहलुओं की जांच कर रहा था तो इसे जारी रहने देना चाहिए। हकीकत में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि सेबी को यह जांच करनी चाहिए कि क्या अदाणी समूह की कंपनियों ने प्रतिभूति अनुबंध (नियमन) नियम 1957 के नियम 19ए का उल्लंघन किया।
इसके अलावा अगर किसी शेयर को लेकर ऐसी कोई गतिविधि हुई है तथा क्या संबंधित पक्ष के लेनदेन की कानून तथा नियमन के मुताबिक जानकारी नहीं दी गई। चूंकि मामले की पड़ताल सेबी द्वारा की जा रही है इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि विशेषज्ञ समिति के गठन से कैसे मदद मिलेगी। यह समिति नियामक की स्थिति को कमजोर कर सकती है।
हालांकि सूचनाओं के लिए यह काफी हद तक नियामक पर ही निर्भर करेगी। चूंकि सेबी आरोपों की जांच की प्रक्रिया में है इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि जांच खत्म होने तक समिति किसी नतीजे पर कैसे पहुंचेगी। नियामकीय ढांचे को मजबूत करने की बात करें तो प्रतिभूति बाजार नियामक इसके लिए पूरी तरह सशक्त है।
व्यापक स्तर पर देखें तो यह कहा जा सकता है कि नियामक को अदाणी समूह के शेयरों के मामले में तथा उनकी शेयरधारिता के रुझानों को लेकर अधिक सक्रियता बरतनी चाहिए थी लेकिन यह मामला ऐसा भी नहीं था कि न्यायालय हस्तक्षेप करे और इसके लिए समिति का गठन करे। हालांकि यह बात सही है कि अदाणी समूह के शेयरों के बाजार मूल्य को करीब 10 लाख करोड़ रुपये की क्षति पहुंचती है लेकिन इनमें खुदरा और म्युचुअल फंड की हिस्सेदारी काफी हद तक सीमित थी।
इसके अलावा कोई समस्या सामने नहीं आई तथा शेयर बाजार सुचारु रूप से काम कर रहे हैं। वित्तीय बाजारों में अस्थिरता तो रहती ही है तथा बड़ी तादाद में निवेशकों के निरंतर कदमों से मूल्य निर्धारण होता है। जिन शेयरों पर सवाल उठे हैं उनके मामले में भी निवेशकों उन्हें खरीदते समय ही जोखिम का पता होना चाहिए था।
हालांकि निवेशकों को बाजार की अस्थिरता से बचाने का कोई तरीका या जरूरत नहीं है। उदाहरण के लिए अमेरिका में कुछ बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियों का बाजार पूंजीकरण 2022 में 50 फीसदी तक घट गया क्योंकि बाजार के हालात बदल गए थे। इसके बीच ही अंबुजा सीमेंट की हिस्सेदारी बेचने की चर्चा से वे सवाल और मजबूती से उभरते नजर आ रहे हैं, जिस पर पर्देदारी की पूरी कोशिश की गयी है। जनता का पैसा कहां गया, यह जानने का हक तो देश की जनता को निश्चित तौर पर है।