पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बाद में निर्मला सीतारमण ने चुनावी बॉंड के पक्ष में दलीलें दी। दोबारा से चुनावी बॉंड लाने की बात कहते वक्त निर्मला सीतारमण यह शायद भूल गयी कि इसे सुप्रीम कोर्ट ने अवैध करार दिया है। वैसे भी इस राजनीतिक चंदे का पूरा खेल अब तक सामने नहीं आया है। सिर्फ यह पता चला है कि गुप्त तौर पर एसबीआई के सहारे केंद्र सरकार इन दानों पर नजर रखती थी। जिसे वह अब स्वीकार नहीं करेगी।
अपने दो साक्षात्कारों में (जिन्हें अप्रत्यक्ष विज्ञापन माना जा सकता है) प्रधान मंत्री ने चुनावी फंडिंग में काले धन को रोकने के साधन के रूप में चुनावी बांड योजना का बचाव किया। इस योजना का जन्म उनके शुद्ध विचार से हुआ था। नरेंद्र मोदी ने कहा कि विपक्ष ने इसके दुरुपयोग के बारे में झूठ बोला है और कहा कि सभी को इसका पछतावा होगा। अफसोस संभवतः उच्चतम न्यायालय के उस फैसले के कारण होगा जिसने इस योजना को असंवैधानिक करार दिया था।
निश्चित रूप से, प्रधान मंत्री की टिप्पणी हर किसी की दूरदर्शिता की कमी पर उनके दुःख से उपजी है? श्री मोदी ने चुनावी फंडिंग को पारदर्शी बनाने के लिए इस योजना की शुरुआत की, ताकि पैसे का पता – कौन किस पार्टी को कितना दान दे रहा है – बैंक रिकॉर्ड के माध्यम से पता लगाया जा सके। बैंक प्रक्रियाएं भी काले धन के दान के विरुद्ध गारंटी होंगी।
श्री मोदी ने अपनी टिप्पणियों में पारदर्शिता के गुण पर जोर दिया। फिर भी इस योजना को गैरकानूनी घोषित करने का सर्वोच्च न्यायालय का आधार पारदर्शिता की कमी थी। इससे पहले, सरकार ने गुमनामी को योजना की खूबी बताया था, क्योंकि दानकर्ता सामने आए बिना अपनी पसंद की पार्टियों में योगदान कर सकते थे। लेकिन वे सरकार के लिए गुमनाम नहीं थे। चंदा देकर धंधा लेने का खेल सामने आ चुका है।
सर्वोच्च न्यायालय की सख्ती से पहले आवश्यक डेटा प्रकट करने के लिए बांडों को संभालने वाले भारतीय स्टेट बैंक की अनिच्छा उल्लेखनीय थी। जाहिर है, श्री मोदी की पारदर्शिता की परिभाषा केवल सरकार से संबंधित है, जबकि अदालत ने मतदाताओं के दानदाताओं और उनके लाभार्थी दलों के बारे में जानने के अधिकार को बरकरार रखा।
इस बात के सबूत कि चयनात्मक पारदर्शिता ने सरकार को बदले में बदले की व्यवस्था और उपशामक दान की अनुमति दी, इस बात पर सवाल उठ सकते हैं कि प्रधानमंत्री किस बात का बचाव कर रहे थे। इस बीच, नकद दान के माध्यम से काले धन को रोका नहीं जा सका है; इसलिए वह तर्क भी धुंधला है।
लेकिन श्री मोदी के इस सुझाव में कुछ भी अस्पष्ट नहीं था कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने चुनावी फंडिंग को काले धन की ओर धकेल दिया है। औचित्य के मुद्दे महत्वहीन लगते हैं, क्योंकि इसका बोझ केंद्रीय वित्त मंत्री ने उठाया था, जिन्होंने कहा था कि अगर भारतीय जनता पार्टी सत्ता में लौटती है, तो सरकार ‘बहुत परामर्श’ के बाद बांड योजना को पुनर्जीवित करेगी।
एक बात जो उन्होंने तय नहीं की है वह यह है कि क्या वे समीक्षा फैसले के लिए जाएंगे। क्या परामर्श योजना को संवैधानिक बना देगा। क्या यह मतदाताओं और पार्टियों के बीच समान ज्ञान सुनिश्चित करेगा। जब एक निवर्तमान सरकार उस योजना को पुनर्जीवित करने की बात करती है जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने गैरकानूनी घोषित कर दिया है, तो भारतीय लोकतंत्र किस दिशा में जा रहा है।
दूसरी तरफ वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण यह मानते हैं कि इस पूरे मामले की जांच अभी जरूरी है क्योंकि कई प्रश्नों का उत्तर नहीं मिल पाया है। कुछ दूसरे सवाल भी हैं जो अब तक अनुत्तरित हैं। मसलन जितने चुनावी बॉंडों का आंकड़ा सामने आया है, उनके अलावा शेष चुनावी बॉंडों का आखिर क्या हुआ है जो छापे गये थे।
चुनावी बांड के खरीददारों और प्राप्तकर्ताओं के बारे में विवरणों के खुलासे से होने वाले घिनौने खुलासे संशयवादियों की शुरुआती आशंका की पुष्टि करते हैं कि गुमनाम राजनीतिक फंडिंग योजना के अवांछनीय परिणाम होंगे। संभावित लाभ सौदों से लेकर केंद्रीय एजेंसियों द्वारा जांच की जा रही कंपनियों के बीच स्पष्ट निकटता और इन कंपनियों द्वारा सैकड़ों करोड़ रुपये के चुनावी बांड की खरीद तक, यह योजना ठीक उसी तरह से चल रही है जैसा कि इसके विरोधियों ने भविष्यवाणी की थी।
यह आशंका सच होती दिख रही है कि चुनावी बांड खरीदने और पार्टियों को दान देने के लिए मुखौटा कंपनियों और घाटे में चल रही संस्थाओं का इस्तेमाल किया जा सकता है। जिस कंपनी के पास मुनाफा ही नहीं था, वे किस जरिए धन एकत्रित कर चुनावी चंदा दे रही थी, इसका सच तो देश की जनता के सामने आना ही चाहिए। यही असली पारदर्शिता होगी।