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अभी पारदर्शिता की याद क्यों आयी सेबी को

भारतीय विनिमय एवं प्रतिभूति बोर्ड (सेबी) ने लिस्टिंग ऑब्लिगेशंस ऐंड डिस्क्लोजर रिक्वायरमेंट्स (एलओडीआर) में संशोधन तथा कई अहम बदलावों के जरिये सूचीबद्ध शेयरों के लिए पारदर्शिता एवं कॉर्पोरेट संचालन के ऊंचे मानक तय कर दिए हैं। इनकी बदौलत जहां कंपनियों की पारदर्शिता तथा प्रकटीकरण में सुधार आएगा तथा अल्पांश हिस्सेदारों के संरक्षण में मदद मिलेगी, वहीं कुछ ऐसे भी प्रावधान हैं जिन पर व्यवहार में अमल काफी मुश्किल हो सकता है।

लेकिन असली सवाल यह है कि अचानक सेबी को ऐसा करने की जरूरत क्यों पड़ी। अडाणी समूह पर जारी जांच के बीच ही वे प्रश्न अनुत्तरित ही रह गये हैं, जो इस प्रतिष्ठान से पूछे गये थे। सेबी बोर्ड में अडाणी के रिश्तेदार का मामला भी अब तक अनसुलझा ही है। नई जानकारी यह आयी है कि अब अडाणी के शेयरों के मामले में अमेरिका में भी जांच हो रही है।

जिस खबर की वजह से अडाणी के शेयरों के दाम गिर गये थे। अब सेबी ने कहा है कि सूचीबद्ध कंपनियों द्वारा मीडिया कवरेज पर प्रतिक्रिया देना तथा कंपनियों की तीसरे पक्ष को बिक्री आदि ऐसे ही विषय हैं। समाचार पत्रों को मुख्य धारा के मीडिया के रूप में बहुत व्यापक ढंग से परिभाषित करने और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को आईटी नियमों के तहत ‘मध्यवर्ती’ के रूप में उल्लिखित करने के अलावा नियामक ने शीर्ष 100 सूचीबद्ध कंपनियों से कहा है कि वे मीडिया में आने वाली किसी भी अफवाह या सूचना की 24 घंटे के भीतर या तो पुष्टि करें, उससे इनकार करें या फिर उसे लेकर स्पष्टीकरण दें।

यह प्रावधान आगामी 1 अक्टूबर से लागू हो जाएगा। अगले वित्त वर्ष यानी 2024-25 के आरंभ में इसे 250 कंपनियों तक बढ़ाया जाएगा। इससे अनुपालन का बोझ बढ़ेगा। कंपनियों को सोशल मीडिया, प्रिंट मीडिया और टेलीविजन पर अपने उल्लेख पर नजर रखने के लिए निगरानी प्रणाली तैयार करनी होगी और उसे लेकर समय रहते प्रतिक्रिया देनी होगी।

व्यवहार में इस प्रावधान का पूर्ण अनुपालन लगभग असंभव है क्योंकि ऐसे मंचों पर भी कंपनियों का उल्लेख हो सकता है जिनकी जानकारी ही न हो पाए या फिर अज्ञात इन्फ्लुएंसर ऐसा कर सकते हैं जिनकी निगरानी कर पाना मुश्किल होगा। इस प्रावधान के कुछ हिस्से तथा अन्य बदलाव संचालन को सख्त बनाएंगे। उदाहरण के लिए प्रमुख प्रबंधकीय पदों पर भर्ती के लिए समय सीमा को छह महीने की तुलना में कम करके तीन महीने कर दिया गया है।

इसके अलावा ऐसी नियुक्तियां अंतरिम भी नहीं हो सकतीं। जिन निदेशकों की पुनर्नियुक्ति की जा रही है उनकी नियुक्ति को कम से कम पांच वर्ष में एक बार अंशधारकों के वोट से पुष्ट किया जाना चाहिए। किसी सूचीबद्ध कंपनी द्वारा बिक्री करने या अंडरटेकिंग के हस्तांतरण की स्थिति में अल्पांश हिस्सेदारों को भी अपनी बात रखने का हक होगा। इसकी व्यवस्था ऐसे लेनदेन के लिए बने नए मेजोरिटी ऑफ माइनॉरिटी के नियम में की गई है।

इसका अर्थ यह हुआ कि सार्वजनिक अंशधारकों में से अधिकांश का लेनदेन के पक्ष में मतदान करना जरूरी होगा। इसके अलावा आम सभा में एक विशेष प्रस्ताव पारित करना होगा तथा ऐसी बिक्री, निस्तारण या लीज के लिए उचित वजह का खुलासा अंशधारकों के समक्ष करना होगा। इससे अल्पांश अंशधारकों के हितों की रक्षा होती है लेकिन इससे सौदे पूरे करने की प्रक्रिया भी जटिल होगी।

सेबी ने घटनाओं और लेनदेन की अहमियत के निर्धारण के लिए मात्रात्मक सीमा पेश की है। यदि कोई घटना या सूचना कुल कारोबार या विशुद्ध मूल्य के दो फीसदी के बराबर का प्रभावी मूल्य रखती है या कर पश्चात औसत मुनाफे या नुकसान के 5 फीसदी के बराबर मूल्य रखता है तो इसे महत्त्वपूर्ण माना जाएगा। ऐसी घटनाओं और प्रवर्तकों तथा संबंधित पक्षों की भागीदारी वाले समझौतों में कुछ तो वस्तुपरकता बाकी रहेगी।

नियामक ने किसी निदेशक या वरिष्ठ प्रबंधन के स्तर पर धोखाधड़ी या देनदारी में चूक के मामले में तथा साइबर सुरक्षा में खामी अथवा अहम प्रबंधकीय व्यक्ति को प्रभावित करने वाले नियामकीय कदम को लेकर भी प्रकटीकरण बढ़ा दिया है। निश्चित तौर पर कंपनियों को हर प्रकार के संचार का प्रकटीकरण करना चाहिए।

सेबी का दावा है कि इससे पारदर्शिता बढ़ाने में मदद मिलती है। मोटे तौर पर ये संशोधन कॉर्पोरेट संचालन में सख्ती और प्रकटीकरण में पारदर्शिता लाएंगे। बहरहाल, नियामक को मीडिया में आने वाली अफवाहों पर प्रतिक्रिया संबंधी निर्देशों की समीक्षा करनी चाहिए। उसके महत्त्वपूर्ण प्रभाव की परिभाषा को भी दुरुस्त करने की आवश्यकता पड़ सकती है।

यह बातें व्यवहार में सही प्रतीत होती है लेकिन जिस समय में ऐसी जानकारी सार्वजनिक हुई है, उसे लेकर इसकी मंशा पर संदेह होना स्वाभाविक है। दरअसल अडाणी का मुद्दा ऐसा पेंच है, जिसे केंद्र सरकार ने ही उलझा दिया है। अब उस मामले में भी सेबी का अदालत को दिया गया बयान भी अडाणी और उनके समर्थकों की तरफ से दूसरे ढंग से परिभाषित करने की कोशिश हुई थी। ऐसे में संदेह स्वाभाविक है।

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