चुनाव जीतने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों ने युवा वर्ग को रोजगार देने का सपना दिखलाया था। अब उसे पूरा किये बिना देश की परेशानियां में कोई कमी नहीं आने वाली है।
कई राज्यों में प्रतियोगी परीक्षाओं को लेकर युवा वर्ग में जो आक्रोश है, इसके आधार को समझना होगा और इस समस्या के निराकरण की दिशा में ठोस कदम जितनी जल्दी उठाया जाए उतना ही बेहतर होगा। भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक सुस्त खपत है।
खपत, बदले में, लोगों की खर्च करने की क्षमता पर निर्भर करती है। मुद्रास्फीति के लिए समायोजन करने के बाद, मुद्दे का सार लोगों की जेब में खर्च करने के लिए अधिक आय होना है, जो अंततः देश में रोजगार के स्तर से निर्धारित होता है। रोजगार में वृद्धि अर्थव्यवस्था के समग्र प्रदर्शन पर निर्भर करती है।
वित्त वर्ष 24 में 8.2 प्रतिशत की वृद्धि से अर्थव्यवस्था धीमी होकर 7 प्रतिशत से कम हो गई है, कॉर्पोरेट क्षेत्र की रोजगार सृजन की क्षमता सीमित है। रोजगार तभी बढ़ता है जब कंपनियां काम पर रखने में मूल्य समझती हैं। वे कर्मचारियों को बैठाये रखने और अपने लाभ-हानि खाते को नीचे खींचने के लिए तैयार नहीं हैं।
सरकार ने रोजगार सृजन के लिए प्रत्यक्ष कार्रवाई शुरू कर दी है, यह एक ऐसा कदम है जो सराहना के योग्य है। जबकि सरकार ने सार्वजनिक प्रशासन के भीतर रिक्तियों को भरने पर ध्यान केंद्रित किया है, इसने निजी क्षेत्र को अधिक लोगों को काम पर रखने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए भी कदम उठाए हैं।
इसका एक हालिया उदाहरण बीमा दिग्गज भारतीय जीवन बीमा निगम द्वारा बीमा सखियों को नियुक्त करने का निर्णय है। यह योजना मुख्य रूप से 18-70 वर्ष की आयु की महिलाओं के लिए है, जिन्होंने कम से कम 10वीं कक्षा पूरी कर ली है।
यह योजना तीन साल का प्रशिक्षण कार्यक्रम प्रदान करती है, जिसमें इन वर्षों के दौरान क्रमशः 7,000, 6,000 और 5,000 प्रति माह का वजीफा दिया जाता है। इसका लक्ष्य महिलाओं को सशक्त बनाना और उन्हें लाभकारी रोजगार के लिए कौशल प्रदान करना है, विशेष रूप से एलआईसी एजेंट के रूप में जो बीमा उत्पादों के लिए ग्राहकों को जोड़ने में मदद करेंगे।
विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा कौशल विकास के जरिए भी रोजगार प्रदान करने की पहल की गयी है पर उनकी सफलता पर अनेक प्रश्नचिह्न लग चुके हैं। केंद्र सरकार के बजट में पांच वर्षों में 1 करोड़ युवाओं को लक्षित करने वाली इंटर्नशिप योजना भी शुरू की गई है।
सरकार इन प्रशिक्षुओं को प्रति माह 5,000 रुपये का वजीफा देगी, जिन्हें देश की शीर्ष 500 कंपनियों में ऑन-द-जॉब प्रशिक्षण दिया जाएगा, जिससे संभावित रूप से पूर्णकालिक रोजगार मिलेगा।
यह निश्चित रूप से उन्हें अधिक रोजगार योग्य बनने में मदद करेगा। भारत के उद्योग जगत को अधिक लोगों को काम पर रखने और रोजगार सृजन के मुद्दे को संबोधित करने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए सरकार द्वारा ये सराहनीय कदम हैं।
इन पहलों से दो विचार उभर कर आते हैं: पहला, ऐसे कार्यक्रमों को विभिन्न उद्योगों में दोहराया जा सकता है, और दूसरा, राज्य सरकारें अपने क्षेत्रों में उन्हें लागू करने में अग्रणी भूमिका निभा सकती हैं। लेकिन, क्या रोजगार सृजन के लिए यही एकमात्र तरीका है?
यह सवाल इसलिए बड़ा है क्योंकि युवा वर्ग का वोट लेते वक्त उन्हें जो सपने दिखाये गये थे, उसके आधार पर अनेक लोगों ने स्वर्णिम भविष्य का प्लान भी बना रखा है। दूसरी तरफ यह भी महत्वपूर्ण है कि कर्मचारी लागत किसी भी कंपनी के व्यय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होती है, इसलिए संचालन चलाने के लिए आवश्यकता से अधिक लोगों को काम पर रखने में हिचकिचाहट होती है।
इसके परिणामस्वरूप समय-समय पर छंटनी हुई है, यहाँ तक कि लाभदायक कंपनियों में भी, जिससे अत्यधिक कुशल श्रमिकों में अस्थायी बेरोजगारी पैदा हुई है।
अक्सर, जिन लोगों को नौकरी से निकाला जाता है, उन्हें ऐसी नौकरी स्वीकार करनी पड़ती है, जिसमें उनके पिछले पदों से कम वेतन मिलता है।
हालाँकि सरकार की पहल एक सकारात्मक शुरुआत है, लेकिन ऐसे उपायों को अनिश्चित काल तक जारी नहीं रखा जा सकता क्योंकि इसके लिए निजी क्षेत्र में लोगों को रोजगार में रखने के लिए पर्याप्त वित्तीय प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है। गैर-सरकारी क्षेत्रों में रोजगार सृजित करने के लिए विकल्पों की खोज की जानी चाहिए।
एक संभावित समाधान कंपनियों को अधिक कर्मचारियों को नियुक्त करने के लिए प्रोत्साहन प्रदान करना है। यह उन कंपनियों के लिए कर प्रोत्साहन के रूप में हो सकता है, जो पिछले तीन वर्षों के औसत से अधिक स्थायी कर्मचारियों की संख्या में वृद्धि दर दिखाती हैं। इसी तरह, उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन योजना को रोजगार लक्ष्यों से जोड़ा जा सकता है, जिससे कंपनियों को अधिक लोगों को नियुक्त करने पर सरकार से सब्सिडी का दावा करने की अनुमति मिलती है।