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चुनाव से बड़ी चुनौती आसन्न जलसंकट है

पूरे देश को चुनावी बुखार चढ़ाने की भरसक कोशिश हो रही है। नेताओं के भाषण और रैलियों में अलग अलग किस्म के वादे किये जा रहे हैं, जो पूरे होंगे अथवा नहीं, इसकी कोई गारंटी नहीं है। इसके बीच ही देश के लिए बड़े खतरे का संकेत हमें बेंगलुरु से मिल चुका है। उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक दक्षिण भारत के सभी जलाशयों की धारण क्षमता का 23प्रतिशत भरने के लिए पर्याप्त पानी है। पिछले सप्ताह केंद्रीय जल आयोग के आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर रिपोर्ट किया था।

विश्लेषण के अनुसार, यह रोलिंग दशकीय औसत से नौ प्रतिशत अंक कम है, जो आसन्न संकट की निश्चितता और भयावहता को दर्शाता है। आखिरी बार दक्षिण भारत को गर्मियों में जल संकट का सामना 2017 में करना पड़ा था। इस वर्ष उसी क्षेत्र में संकट कुछ कारणों से अलग और बदतर होने की ओर अग्रसर है।

उत्तर भारत की शहरी आबादी का अधिकांश सरकारी जलापूर्ति अथवा बोरिंग के पानी पर निर्भर है। यह दोनों ही गर्मी बढ़ने के साथ साथ घटते चले जाएंगे। कुछेक इलाकों में बोरिंग का पानी कम होने की शिकायतें अभी से ही मिलने लगी है। यह स्थिति तब है जबकि अभी गर्मी के कमसे कम ढाई महीने और बचे हुए हैं। इस मोड़ पर केंद्र अथवा किसी राज्य सरकार की तरफ से इस आसन्न संकट से उबरने की कोई कार्ययोजना सामने नहीं आयी है।

लगता है सभी सरकारों ने यह मान लिया है कि यह उतनी बड़ी चुनौती नहीं है जबकि इस साल यह खतरा पिछले साल से अधिक होने वाला है। बताते चलें कि सबसे पहले, मानसून विभिन्न कारकों से प्रभावित होता है; इनमें से अल नीनो घटनाएँ उन्हें और अधिक अनियमित बना देती हैं, भले ही उनके प्रभाव को अलग करना एक सरलीकरण है। 2014-16 में अल नीनो घटना थी जबकि इस बार यह घटना चल रही है और यह रिकॉर्ड किए गए इतिहास की पांच सबसे मजबूत घटनाओं में से एक है।

दूसरा, मौसम विज्ञानियों द्वारा 2023 को रिकॉर्ड पर सबसे गर्म वर्ष दर्ज करने के बाद, उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें 2024 के बदतर होने की उम्मीद है। यू.के. मौसम विज्ञान कार्यालय के नेतृत्व में एक टीम ने भी 93प्रतिशत संभावना की भविष्यवाणी की कि 2026 तक हर साल एक रिकॉर्ड तोड़ने वाला होगा। तीसरा, भारत में लाखों लोग आम चुनाव में वोट डालने के लिए इस गर्मी में कुछ अतिरिक्त समय बाहर बिताएंगे। चौथा, यह संकट पहले भी आया है; फिर भी, जबकि (कुछ) नीतियों और पूर्वानुमानों में सुधार हुआ है, ज़मीन पर इन नीतियों की तैयारी और कार्यान्वयन में सुधार नहीं हुआ है।

अनियोजित शहरी विकास, भूजल का अत्यधिक दोहन, कम पानी के पुन: उपयोग की दक्षता, अपर्याप्त सामुदायिक भागीदारी और जलग्रहण क्षेत्रों का अतिक्रमण और/या गिरावट सहित अन्य कारक कायम हैं। जलवायु परिवर्तन एक साथ संकट पैदा करके भारत जैसे निम्न और मध्यम आय वाले देशों पर अधिक घातक लागत डालेगा।

जबकि यह घटना मौसम की घटनाओं के सह-विकसित होने के तरीके को बदल देती है, यह उनकी घटना की आवृत्ति को भी प्रभावित करती है जैसे कि दो घटनाओं के एक साथ घटित होने की संभावना पहले की तुलना में अधिक हो सकती है – जैसे कि सूखा और बीमारी का प्रकोप, जो बदले में होगा हाशिए पर रहने वाले समूहों के बीच सामाजिक-आर्थिक स्थिति खराब होना। किसी भी जल संकट को इस पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए, जहां यह अपने आप में एक संकट है और एक ऐसा कारक है जो दूसरे के प्रभावों को बढ़ाता है।

एक साल की कम बारिश के बाद किसी क्षेत्र में पानी की स्थिति अनिश्चित हो जाना इस बात का संकेत है कि सरकारें सबक नहीं ले रही हैं या उन्हें नजरअंदाज कर रही हैं, भले ही घाटा काफी हो। इस तथ्य को समझने के लिए पहले से मौजूद जानकारी से अधिक किसी जानकारी या संदर्भ की आवश्यकता नहीं है। लेकिन ऐसा लगता है कि सरकारों और नीति निर्माताओं को यह याद दिलाने की ज़रूरत है कि यह और भविष्य के संकट न तो केवल पानी के बारे में होंगे और न ही जलवायु परिवर्तन के कारण होंगे।

इस हालत में भूमिगत जल भंडार को कैसे और मजबूत किया जाए, इस पर महज भाषणबाजी हो रही है। दरअसल आधुनिक विकास के मानक समझी गयी पक्की सड़कों ने इस भूगर्भस्थ जल भंडार को रिचार्ज करना बंद कर दिया है। भारत में यूरोप जैसी सोच भी विकसित नहीं हो पायी, जिसमे पानी सोखकर जमीन के नीचे भेजने वाली तकनीक की सड़क बनाई जाए। भाषणों में बड़ी बड़ी डींगें हांकने से इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता। धरती के अंदर के भूजल स्तर पर बढ़ाये बिना अब इस समस्या का हल नहीं हो सकता।

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