सोना और चांदी के बरतन में खायेंगे। गप शप भी होगी और फिर शानदार टूर कर वापस लौट जाएंगे। दरअसल कूटनीतिक स्तर पर जी 20 के आयोजनों का इससे अलग कोई महत्व है या नहीं यह अब तक स्पष्ट नहीं हो पाया है। अगर ऐसा होता तो इतने देशों के आग्रह के बाद भी रूस और यूक्रेन का युद्ध जारी नहीं रहता।
चीन में उइगर मुसलमानों का दमन जारी नहीं रहता और अफगानिस्तान में महिलाओं को कुछ तो आजादी मिल ही जाती। लेकिन ऐसा होता तो नहीं है। ऊपर से अफ्रीका पर नजर डालें तो गरीबी से तंगहाल देश लगातार सैन्य शासन के अधीन चले जा रहे हैं। पाकिस्तान की दयनीय आर्थिक हालात के बीच वहां से सैन्य शासकों की जीवनशैली भी अचरज मे डालती है। इसलिए लगता है कि समय समय पर तमाम राजनेताओं को पर्यटन का आनंद दिलाने के लिए ऐसी आयोजन किये जाते हैं। इससे देश को या यूं कहें कि देश की जनता को क्या फायदा होगा, यह समझ से परे है।
विदेशी मेहमानों के स्वागत पर जो अरबों रुपये खर्च होंगे, वह किसकी जेब से जाएगा, यह भी अब समझने लायक बात है। देश की चुनौतियों के बीच अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर और कद्दावर बनाने के जुगाड़ में मोदी जी अच्छी चालें चल लेते हैं। यह अलग बात है कि अपने अपने कारणों से दो बड़े नेता ब्लादिमीर पुतिन और शी जिनपिंग इसमें नहीं आये हैं।
फिर भी असली सवाल यही है कि देश के आम आदमी यानी मैंगों मैन को इससे क्या फायदा। इससे पहले भी अनेक विदेश दौरों से विदेशी पूंजीनिवेश का कोई खास परिणाम आता तो नहीं दिखता। इसी बात पर एक चर्चित फिल्म गुलाम का यह गीत याद आ रहा है। इस गीत को लिखा था नीतिन राइकवर ने और संगीत में ढाला था जतिन और ललित ने। यह गीत इसलिए भी ज्यादा लोकप्रिय हुआ क्योंकि इस गीत में अलका याज्ञिक के साथ खुद आमिर खान ने स्वर दिया था। गीत के बोल कुछ इस तरह हैं।
ऐ, क्या बोलती तू, ऐ, क्या मैं बोलूँ
सुन – सुना – आती क्या खंडाला
क्या करूँ, आके मैं खंडाला
घूमेंगे, फिरेंगे, नाचेंगे, गायेंगे
ऐश करेंगे और क्या
ऐ, क्या बोलती तू …
बरसात का सीज़न है
खंडाला जाके क्या करना
बरसात के सीज़न में ही तो, मज़ा है मेरी मैना
भीगूँगी मैं, सर्दी खाँसी हो जायेगी मुझको
चद्दर लेके जायेन.गे, पागल समझी क्या मुझको
क्या करूँ, समझ में आये न
क्या कहूँ, तुझसे में जानूँ न
अरे इतना तू क्यों सोचे, मैं आगे तू पीछे
बस अब निकलते और क्या
ऐ, क्या बोलती तू …
लोनवला में चिक्की खायेंगे, वाटर फॉल पे जायेंगे
खंडाला के गार्ड के ऊपर, फ़ोटू खींच के आयेंगे
हाँ भी करता, न भी करता, दिल मेरा दीवाना
दिल भी साला, #पर्त्य# बदले, कैसा है ज़माना
#फोने# लगा, तू अपने दिल को ज़रा
पूछ ले, आखिर है क्या मजरा
अरे पल में फिसलता है, पल में सम्भलता है
कनफ्यूज करता है बस क्या
ऐ, क्या बोलती तू …
खैर मेहमान भगवान होता है। आये हैं तो अच्छा स्वागत होना ही चाहिए। उससे आगे की भी बात कर लें। उसके तुरंत बाद संसद का वह सत्र प्रारंभ होना है, जिसमें किन मुद्दों पर चर्चा होगी, यह साफ नहीं है। पहले से ही भारत और इंडिया का बहस पैदा किया गया था। बीच में सनातन और द्रविड का मसला उलझा है। अपने मोदी जी भी कमाल के हैं। विपक्ष को एक के बाद एक नये नये जाल में उलझाते रहते हैं। यह अलग बात है कि विदेश से राहुल गांधी ने फिर से ढोल फोड़ दिया है और साफ कहा है कि यह भटकाने की पुरानी चाल है।
अब संसद में जो कुछ होना था, उसमें कुछ न कुछ तो बदल ही गया है क्योंकि घोसी की जनता ने डबल इंजन सरकार को घास नहीं डाला है। जिन तिकड़मों से जीत का दावा किया गया था, वे बेकार साबित हुए। ऊपर से मायावती की माया ने भी कमल पर ग्रहण लगा दिया। बाकी अब पंद्रह तारीख के बाद ईडी में क्या कुछ होता है, यह देखने वाली बात होगी जबकि कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों को लपेट मे लेने की चाल अब जगजाहिर हो चुकी है।
इतना के बाद भी इंडिया वनाम एनडीए की लड़ाई में भारत वनाम इंडिया अथवा सनातन धर्म या फिर राम मंदिर का पुराना मुद्दा कितना कारगर होगा, यह देखने वाली बात होगी। जनता के जख्मों पर मरहम लगाने में रसोई गैस की कीमतों में दो सौ रुपये की कमी तो शायद उल्टी पड़ गयी और लोग नौ साल बाद चुनाव आने के पहले इस दरियादिली पर ही सवाल उठाने लगे। इसलिए हुजूर पानी किस तरफ बह रहा है, इस पर नजर रखने की जरूरत है। यह इंडियन पॉलिटिक्स है, जहां चाय की प्याली में उठा तूफान भी सरकार गिरा दिया करता है।