सर्वोच्च न्यायालय ने जब मणिपुर की घटना पर स्वतः संज्ञान लिया तो सरकार को चौकन्ना होना पड़ा। आनन फानन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मीडिया के सामने एक छोटा सा बयान देकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्ति पा गये। संसद के भीतर वह बयान देने से बचते नजर आ रहे हैं।
यह भी सोचने वाली बात है कि मणिपुर उच्च न्यायालय भी घटना का स्वत: संज्ञान ले सकता था लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के उलट वह भी खामोश ही रहा है। मई माह में मणिपुर में कुकी जोमी महिलाओं पर भीड़ के हमले का जो परेशान करने वाला वीडियो सामने आया है वह इस बात को रेखांकित करता है कि राज्य के संस्थान कानून व्यवस्था की दिक्कतों से तत्काल और निष्पक्ष तरीके से निपटने में विफल रहे हैं और उनकी यह नाकामी निंदनीय है।
19 जुलाई को वीडियो सार्वजनिक होने के बाद पुलिस ने छह लोगों को गिरफ्तार किया और उन पर अपहरण, सामूहिक बलात्कार और हत्या का आरोप लगाया। पुलिस को अभी यह बात स्पष्ट करनी है कि एक वायरल वीडियो जो घटना के 77 दिन बाद फैला, उसके बाद ही प्राथमिकी क्यों दर्ज की गई और उसने इसके बाद ही कदम क्यों उठाया। सरकारी कामकाज की गति भले ही धीमी होती है लेकिन यह अपराध इतना जघन्य था कि इस पर तुरंत कदम उठाया जाना चाहिए था। इससे भी बुरी बात यह है कि पुलिस के अपराधियों के साथ मिलकर काम करने की खबरें भी सामने आ रही हैं। जानकारी के मुताबिक पीड़ितों ने पहले जंगल में शरण ली थी जहां से पुलिस उन्हें सुरक्षित निकाल रही थी। रास्ते में भीड़ ने उन्हें छीन लिया, उन्हें नग्न करके उनका जुलूस निकाला और उनके साथ हिंसा की। एक पीड़िता के पिता और भाई ने उसे बचाने की कोशिश की तो उनकी भी हत्या कर दी गई।
एक तथ्य यह भी है कि आतताइयों ने अपने कर्म छिपाने के प्रयास नहीं किए। इससे पता चलता है कि उन्हें सरकारी एजेंसियों का कोई डर नहीं था। आश्चर्य की बात है कि पुलिस ने भी ऐसा कोई प्रयास नहीं किया कि वह घटना में अपनी भूमिका के बारे में मीडिया के प्रश्नों से बचे। ऐसा कोई प्रमाण भी नहीं है कि घटना में शामिल पुलिसकर्मियों पर कार्रवाई की गई हो। मीडिया रिपोर्ट की मानें तो पुलिस ने शिकायत की है कि भीड़ के सामने वह तादाद में कम पड़ गई।
यह शिकायत उलझाने वाली है क्योंकि केंद्र सरकार वहां के हालात की निगरानी कर रही है और कहा जा रहा है कि प्रदेश में कानून-व्यवस्था लागू करने के लिए बड़े पैमाने पर केंद्रीय बल तैनात किए गए हैं। उदाहरण के लिए जून में केंद्र सरकार ने केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल के 1,000 जवान भेजे थे। उससे पहले त्वरित कार्य बल, सीमा सुरक्षा बल, भारत-तिब्बत सीमा पुलिस और सशस्त्र सीमा बल की 114 टुकड़ियां वहां तैनात थीं।
गृह मंत्रालय ने इनकी तैनाती वहां सेना और असम राइफल्स की स्थिति मजबूत करने के लिए की है। सच यह है कि वहां जातीय हिंसा नियंत्रण से बाहर हो रही है और उक्त वीडियो इसकी एक बानगी भर है। अगर इतनी बड़ी तादाद में राज्य और केंद्रीय बलों की उपस्थिति के बावजूद ऐसा हो रहा है तो इसका जवाब सामने आना चाहिए। हालांकि प्रधानमंत्री ने दुख जताया है लेकिन उन्होंने विपक्ष की मांग के अनुरूप संसद में कोई बयान नहीं दिया है।
इसके चलते वहां गतिरोध की स्थिति बनी हुई है। राज्य के हालात को देखते हुए प्रधानमंत्री का वक्तव्य मणिपुर और पूरे देश को आश्वस्त करने का काम करेगा। परंतु इसके बजाय खबर यह है कि सरकार ट्विटर पर कार्रवाई करने जा रही है कि उसने वीडियो को फैलने कैसे दिया। मणिपुर उच्च न्यायालय भी घटना का स्वत: संज्ञान ले सकता था लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के उलट वह भी खामोश ही रहा है। नागरिकों के बुनियादी अधिकारों और उनकी सुरक्षा करने में राज्य के संस्थानों का नाकाम रहना एक ऐसे देश के लिए गहन चिंता का विषय होना चाहिए जो वैश्विक स्तर पर अपनी छाप छोड़ना चाहता है।
इन तमाम कारणों से गुजरात दंगे की याद आती है जब वहां नरेंद्र मोदी ही मुख्यमंत्र थे। प्रधानमंत्री अटल बिहार बाजपेयी के गुजरात पहुंचने और सीधी बात कहने के बाद ही दंगा को नियंत्रित किया जा सका था। घटनाक्रम बताते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब तक अपने गुजरात के मुख्यमंत्री वाली सोच से बाहर नहीं आ पाये हैं। इसी वजह से वह निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की पंचायत के अंदर जाकर बयान देने से डर रहे हैं। अजीब बात यह है कि उसी अटलबिहारी बाजपेयी की पार्टी के प्रचंड बहुमत के बाद भी नीचे से ऊपर तक सभी नेता खामोशी बनाये हुए हैं। खुद नरेंद्र मोदी अपनी तीसरी बार की जीत और भारत के तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की बात तो कर रहे हैं पर मणिपुर पर उनकी निरंतर चुप्पी देश को पसंद नहीं आ रही है।