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देश के मुद्दों पर हावी चुनावी राजनीति

लोकतंत्र में ऐसा माना जाता है कि जब देश में अराजकता हो तो संसद शांत नहीं रह सकती क्योंकि वह उस देश में रहने वाले लोगों का प्रतिनिधित्व करती है।

संसद के दोनों सदनों के लिए नियम बनाने वाले हमारे दूरदर्शी संसदीय विशेषज्ञ पूर्वजों ने इस बात पर जरूर विचार किया होगा कि जब देश में कोई मुद्दा गर्म हो तो उसकी नजर संसद पर नहीं हो सकती और ऐसे माहौल में संसद की कार्यवाही पुराने ढर्रे पर चलती नहीं दिख सकती, इसलिए उन्होंने संसद के नियमों के तहत संसद सदस्यों को कार्य करने का अधिकार प्रस्तावित करने का अधिकार दिया है।

हमने पिछली सरकारों में देखा है कि विपक्षी सांसद अक्सर इस अधिकार का इस्तेमाल करके संसद में सभी सामान्य कामकाज को रोक देते हैं और बहस भी होती रहती है। लेकिन प्रस्ताव को स्वीकार करना या न करना पूरी तरह से लोकसभा अध्यक्ष के विवेक पर निर्भर है और उनके फैसले को चुनौती नहीं दी जा सकती।

इसका एक कारण सदन में विभिन्न राजनीतिक दलों के सदस्यों की उपस्थिति और सत्ता और विपक्ष में मतभेद के बावजूद लोकसभा अध्यक्ष का चुनाव लगभग सर्वसम्मति से होना है। वह प्रत्येक सांसद के अधिकारों का संरक्षक होता है और उसे सदन में स्वतंत्र शक्तियाँ भी प्राप्त होती हैं।

अभी पूरा भारत पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर में मानवता को बड़े पैमाने पर कुचलने और गृहयुद्ध से जूझ रहा है जिसमें राज्य अपने नागरिकों के दो समूहों के बीच खूनी संघर्ष के कारण महिलाओं को निशाना बना रहा है और इसके नागरिकों को लगता है कि मणिपुर में संवैधानिक ढांचा पूरी तरह से ध्वस्त हो गया है।

मणिपुर में इस आदिवासी दुश्मनी की आग अब उत्तर-पूर्व के अन्य पड़ोसी राज्यों तक पहुंचने लगी है और भारत के इस छोटे से राज्य में हो रही हिंसा और मानवाधिकार उल्लंघन की चर्चा दुनिया के अन्य लोकतांत्रिक और विकसित देशों में हो रही है। इसे देखते हुए, अगर संसद में मौजूद विपक्षी दल संसद के दोनों सदनों में सभी सामान्य कामकाज रोककर मणिपुर पर चर्चा की मांग करते हैं, तो वे कुछ और नहीं मांग रहे हैं।

विपक्ष की यह मांग जायज है कि इतने गंभीर विषय पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को संसद के भीतर बयान देना चाहिए। दूसरी तरफ खुद श्री मोदी यह काम छोड़कर दूसरे काम कर रहे हैं।  शायद इसी वजह से केंद्रीय गृह मंत्री श्री अमित शाह आज लोकसभा में आए और कहा कि वह मणिपुर मुद्दे पर चर्चा के पक्ष में हैं ताकि देश की जनता राज्य की स्थिति से अवगत हो सके।

इसलिए संसद का कर्तव्य है कि वह गतिरोध को समाप्त कर चर्चा के स्थान पर पहुंचे और देशवासियों सहित पूरी दुनिया को यह संदेश दे कि भारत जैसे प्राचीन सभ्यता वाले देश में मानवता को शर्मसार करने वाला पशु व्यवहार बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और सरकार पूरी ताकत से प्रत्येक नागरिक के मानवाधिकारों की रक्षा करेगी।

लेकिन साथ ही हमें यह भी देखना होगा कि मणिपुर मुद्दे पर नाराज विपक्षी सांसदों के साथ भी स्थापित संसदीय परंपरा के उच्च स्तर को ध्यान में रखते हुए निपटा जाए। संसद में व्याप्त तनावपूर्ण माहौल को देखते हुए आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह को शेष सत्र के लिए राज्यसभा से निष्कासित करने से सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच दूरियां और बढ़ेंगी।

साठ और सत्तर के दशक में इसी राज्यसभा में जब डॉ लोहिया की पार्टी सोनसोपा के सदस्य स्व. राजनारायण जब भी सभापति के आसन पर बैठते थे तो अक्सर विरोध स्वरूप उनकी कुर्सी के सामने बैठ जाते थे। मार्शलों द्वारा उन्हें कई बार सदन से बाहर निकाला गया, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ जब उन्हें पूरे सत्र के लिए सदन से बाहर निकाला गया हो।

लालू जी के राज्यसभा में आने के बाद भी उन्होंने वाजपेयी सरकार के दौरान कई बार ऐसा ही किया और खुद सदन में धरने पर बैठे। लोकतंत्र आपसी सम्मान के साथ-साथ चलता है। विपक्षी दल अपना धर्म निभायेगा और सत्ता पक्ष अपना वैभव दिखायेगा. ये तो डॉ लोहिया ही कहते थे।

यदि यह सिद्धांत न होता तो डॉ. अम्बेडकर यह क्यों कहते कि संसद पर पहला अधिकार विपक्ष का है। इसलिए अब सत्ता पक्ष और खासकर नरेंद्र मोदी की यह जिम्मेदारी है कि वह विदेशी मुद्दों के बदले सबसे पहले पूरे देश को संसद के भीतर मणिपुर पर बयान देकर वह भरोसा कायम करें, जो इनदिनों तेजी से घटता चला जा रहा है।

सोशल मीडिया के जरिए इस संघर्ष की कई कहानियां फैलायी जा रही हैं। लेकिन यह केंद्र और वहां की राज्य सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वहां की हिंसा की जिम्मेदारी स्वीकारें। हर बात को हल्के में लेना भारी भी पड़ सकता है क्योंकि भारतीय जनता इस किस्म के गैर जिम्मेदार आचरण को स्वीकार नहीं करती। डॉ मनमोहन सिंह के पीएम होते और स्वर्गीय शीला दीक्षित के दिल्ली की मुख्यमंत्री होते वक्त निर्भया कांड को मोदी याद कर लें तो बेहतर होगा।

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