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मणिपुर की हालत पर पूरा देश ध्यान दें

मणिपुर में हो रही हिंसा काफी चिंताजनक और दुखद है। यह हिंसा दो समूहों, यानी मैतेई और कुकी समुदाय के बीच जातीय विवाद के कारण हो रही है। इसके पीछे अन्य कारण भी हैं, जैसे सांस्कृतिक वर्चस्व, अफीम की खेती और आस्था के मुद्दे। यह हिंसा बड़े त्रासदीपूर्ण संघर्ष की ओर इशारा करती है, जो देश में अंतर्निहित समस्याओं को हल करने की आवश्यकता को दर्शाती है।

गृहमंत्री अमित शाह द्वारा लिए गए कदम और शांति समिति के गठन का प्रयास स्थानीय समाज को समाधान की ओर ले जाने का प्रयास है। इस समिति के माध्यम से सामाजिक सद्भाव और भाईचारे को बढ़ावा मिल सकता है और विभिन्न समुदायों के बीच संवाद का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।

इसके अलावा, सुरक्षा बलों के तलाशी अभियान और लोगों के हथियार जमा करने का अनुरोध भी हिंसा को रोकने के लिए किया गया है। मणिपुर में हाल ही में घटित हिंसा के बाद, जहां दो महिलाएं एक घायल बच्ची को एम्बुलेंस के साथ ले जा रही थीं, एक भीड़ ने उन्हें आग के हवाले कर दिया और उन्हें बचाने के लिए कमांडो पुलिस अधीक्षक को भागना पड़ा। इस घटना से साफ होता है कि मणिपुर खतरनाक हालातों में है।

यह एक नई घटना नहीं है, बल्कि मैतेई और कुकी समुदायों के बीच हिंसा काफी समय से जारी है। इस तरह की हिंसा पूर्वोत्तर राज्य में पहले कभी देखी नहीं गई थी, जिससे पता चलता है कि राज्य में बहुत गंभीर समस्याएं हैं। हिंसा ने साम्प्रदायिक रूप ले लिया है और पूरे राज्य में बड़ी तादाद में मौत और पलायन की स्थिति पैदा हो गई है। इस संघर्ष की शुरुआत एक हाईकोर्ट के आदेश के बाद हुई, जिसमें सरकार को निर्देश दिए गए थे कि वे दस साल पहले की सिफारिश को लागू करें, जिसमें गैर-जनजाति मैतेई समुदाय को जनजाति में शामिल करने की बात कही गई थी।

इस हिंसा के पीछे कई कारण हैं, जिसमें पहाड़ों में अफीम की खेती, सांस्कृतिक वर्चस्व और आस्था के वर्चस्व की लालसा प्रमुख है। इसके बीज अंग्रेजों के शासन के दौरान ही बो दिए गए थे। देश में अंग्रेजों की सत्ता के बाद पहाड़ी क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर धर्मांतरण का खेल आरंभ हो गया था। कभी सेवा के नाम पर, कभी ताकत के बल पर तो कभी अंधविश्वास के नाम पर। जनजाति समाज के भोलेपन का फायदा उठाते हुए उन्हें कन्वर्ट किया जाता रहा।

देश की आजादी के बाद पूर्वोत्तर में सबसे पहले उग्रवाद की जड़ें नगालैंड में पनपनी शुरू हुईं। इसके पीछे सीधे तौर पर पश्चिमी देशों का मजहबी एजेंडा शामिल था। समय बीतने के साथ पूरे पूर्वोत्तर में उग्रवाद ने अपनी जड़ें जमा लीं। सभी समूहों के पीछे नगालैंड में पैदा हुआ उग्रवादी समूह ही था। उग्रवाद की आड़ में धर्मांतरण का खेल बड़े ही शांतिपूर्ण तरीके से चलता रहा।

जब तक देश के अन्य हिस्सों में इसका पता चलता तब तक काफी देर हो चुकी थी। केंद्र में बैठी पूर्ववर्ती सरकार ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया। पूर्वोत्तर में सेवा और शिक्षा के नाम पर बड़े पैमाने पर फर्जी एनजीओ के जरिए आर्थिक मदद मुहैया करानी जारी रही, जिसका उपयोग धर्मांतरण और उग्रवाद की पौध को सींचने के लिए किया जाता रहा।

पूर्वोत्तर के कई राज्यों से म्यांमार की सीमा लगती है। यहां से न सिर्फ हथियार भारत में पहुंचाये जाते रहे, बल्कि उग्रवादी समूह अपने प्रशिक्षण शिविर भी म्यांमार में स्थापित कर पूर्वोत्तर को दहलाने की अनवरत कोशिश करते रहे हैं। उग्रवाद प्रभावित पूर्वोत्तर के राज्यों में अलग देश के नाम पर घिनौनी गतिविधियां संचालित की जाती रहीं।

इन सबके पीछे सिर्फ एक उद्देश्य था, अलग उपासना पद्धति के अनुसार भारत से इस क्षेत्र को अलग करना। राज्य के मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह ने जंगलों में अवैध रूप से हो रही अफीम की खेती के खिलाफ अभियान शुरू किया तो इसकी मार म्यांमार से जुड़े अवैध प्रवासियों पर भी पड़ी। इससे उग्रवादी तत्व बौखला उठे। मुख्यमंत्री बीरेन सिंह की बयानबाजी ने भी मामले को भड़काया।

कुकी समुदाय ने उन 40 लोगों के शव लेने से इंकार कर दिया जिन्हें मुख्यमंत्री ने उग्रवादी बताया था। अब समय आ चुका है कि राज्य सरकार सभी समुदायों में आपसी विश्वास पैदा करे और सभी की आशंकाएं दूर करे। दोनों समुदाय मिल बैठकर समस्या का समाधान निकालें। सभी को लगे कि सरकार उनके हितों के खिलाफ नहीं है।

अगर जल्दी शांति की बहाली नहीं हुई तो हिंसा दावानल का रूप ले सकती है। कुकी समूहों ने सरकारी शांति समितियों में शामिल नहीं होने का एलान किया है। इसलिए पंजाब के अलावा नगालैंड की आतंकी गतिविधियों को ध्यान में रखते हुए पूरे देश को इस समस्या पर न सिर्फ ध्यान देना चाहिए बल्कि अपने अपने तरीके से इसके शांतिपूर्ण समाधान का प्रयास भी करना चाहिए। अगर वहां आग लगी है तो उसकी लपटें आप तक नहीं पहुंचेंगी, आज के दौर में यह सोचना मुर्खता ही है।

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