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बाजारवाद के बीच देश में बढ़ती भूख

भारतवर्ष के बेहतर होने का प्रचार आम है। दूसरी तरफ भूखमरी के आंकड़े इन प्रचारों की हवा निकाल देते हैं। इन दोनों परस्पर विरोधी परिस्थितियों के बीच खड़ा है अडाणी समूह का मुद्दा, जिसके बारे में सेबी की जांच फिलहाल पूरी होने की कोई उम्मीद नहीं है।

देश का कुलीन वर्ग इससे प्रभावित नहीं है लेकिन देश का पैसा चंद हाथों में कैद होने की वजह से ही देश का गरीब और गरीब हो रहा है, इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता। इस मुद्दे पर देश का बहुमत ज्यादा गहराई से इसलिए नहीं सोचता क्योंकि अडाणी समूह के काम काज से उसका कोई सीधा संबंध नहीं है।

अडाणी के शेयर सालभर में आसमान छूने लगे थे क्योंकि गौतम अडाणी के बारे में यह भरोसा था कि वे जिस को छुएंगे वह फलेगाफूलेगा ही। आखिर, उन्होंने एक छोटे से राज्य के मुख्यमंत्री को हाथ लगाया तो वह शक्तिशाली प्रधानमंत्री बन गया। अडाणी समूह की कंपनियां रोजमर्रा की आम आदमियों की चीजें कम बनाती हैं।

वे पोर्ट, एयरपोर्ट, सड़कें, कोयला खानें, बिजलीघर, गैस बनाती हैं जो आम लोगों को दिखती नहीं हैं और उन में, आमतौर पर, कंपीटिशन कम होता है। अडाणी की कंपनियों को हर तरह के ठेके बैठे बिठाए मिल रहे थे, इसलिए उन के शेयरों के भाव बढ़ रहे थे। शेयर खरीद कर लोग लखपति से करोड़पति हो रहे थे।

स्वयं अडाणी परिवार इसी से करोड़पति से खरबपति बन रहा था। अब जब एक छोटी सी रिसर्च रिपोर्ट, जिस में कुछ नया नहीं कहा गया है बल्कि जो जानकारी बिखरी पड़ी थी उसे मात्र एकत्र किया गया है, ने तहलका मचा दिया और अडाणी परिवार के कागजी शेयर ताश के महल की तरङ भरभरा कर गिर पड़े। नरेंद्र मोदी, गौतम अडाणी, अडाणी की कंपनियों ने जिन से कर्ज लिया उन की तो छोडि़ए असली चिंता तो उन की करें जो काम अडाणी अपने अधिकार में ले चुके हैं।

एनडीटीवी चैनल को ही लें, जिसे काफी लोग देखते थे और दूसरे चैनलों से उस पर ज्यादा विश्वास करते थे, अब उस का होने वाला नुकसान क्या अडाणी ग्रुप भर पाएगा? उस में काम कर रहे कुछ तो छोड़ गए, बाकियों का क्या होगा। समुद्री पोर्ट, एयरपोर्ट, कोयला खानें, बिजलीघर बनाने में बरसों लगते हैं और बरसों आमदनी नहीं होती, सिर्फ खर्च होता है।

यदि अडाणी समूह को बैंक अब उस के शेयरों के बदले कर्ज नहीं देंगे तो क्या होगा। इन में से ज्यादातर उन जमीनों पर बन रहे हैं जिन की मिलकीयत मोटेतौर पर सरकारों ने आज भी अपने हाथ में रख रखी है। इन से पैदा होने वाली सेवाएं जनता को मिलेंगी या नहीं? इन पर अब तक जो खर्च हो चुका है, उस का क्या होगा?

सरकारी कपड़ा मिलों की तरह ये खंडहर तो नहीं बन जाएंगे। मिसमैनेज हुए विजय माल्या, नीरव मोदी, मोदीनगर वाले मोदी, जयपुरिया जैसों के कारखानों की तरह ये भी बंद हो जाएंगे। देशभर में ऐसे सैकड़ों कारखाने हैं जिन में लगी मशीनें दोचार साल में देखरेख के अभाव में नष्ट हो गईं। उन पर लगी पूंजी बेकार गई। जिन लोगों ने उन कंपनियों के शेयर खरीद रखे थे वे कागज के टुकड़े बन कर रह गए।

अडानियों का क्या होगा, यह चिंता की क्या बात है। हो सकता है वे इस आर्थिक संकट से उबर जाएं पर जो जख्म इन्होंने लाखों अपने शेयरधारकों, कर्मचारियों, उन की सेवाएं या वस्तुओं का व्यापार करने वालों को दिए हैं, उन का तो रोना भी कोई नहीं रोएगा। अफ्रीका के कुछ देशों को छोड़ दें तो भारत की आम जनता की हालत दुनिया में सब से बुरी है जबकि दुनिया के 100 सब से अमीरों में भारत के कितने ही गुजराती उद्योगपति हैं, वही गुजरात, जहां से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह आते हैं।

भूखों की गिनती में एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था ने भारत को 122 में से 107वां स्थान दिया है क्योंकि यहां सारा पैसा कुछ ही हाथों में जा रहा है। यह वह देश है जो ठीकठीक अपना खाना उगा लेता है। यह अनाज का निर्यात भी करता है। यह कम से कम 22 करोड़ भूखे लोगों को पालता है, सरकारी आंकड़ों के हिसाब से 80 करोड़ को खाने का अनाज देता है।

सो, पक्का है कि देश का प्रबंध खराब ही नहीं, बेहद खराब है और इस की जिम्मेदारी उन पर नहीं जिन्होंने 60 साल राज किया, उन पर है जो पिछले 8 सालों से राज कर रहे हैं क्योंकि ये लोग अच्छे दिनों का वादा कर के सत्ता में आए। पिछली सरकार निकम्मी थी, इसीलिए तो जनता ने उसे वोट के जरिए बाहर किया। मौजूदा सत्ताधारी, पढ़े लिखे, नौकरीपेशा, अमीर देश के भूखों के बारे में सोचते ही नहीं हैं। उन के लिए ये भूखे तो देश की गायों की तरह हैं, वे दूध देना बंद कर दें, उन्हें सडक़ों पर मरने दिया जा रहा है।

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