सुप्रीम कोर्ट को पांच नये जज मिल गये हैं। कॉलेजियम की सिफारिश को केंद्र सरकार ने मंजूरी दे दी है। च्चतम न्यायालय को आज पांच नए न्यायाधीश मिले हैं, जिससे शीर्ष अदालत में कुल न्यायाधीशों की संख्या 32 हो गई है। उच्चतम न्यायालय के लिए स्वीकृत न्यायाधीशों की संख्या 34 है।
सोमवार को क्रमश: राजस्थान, पटना और मणिपुर के उच्च न्यायालयों के तीन मुख्य न्यायाधीशों – न्यायमूर्ति पंकज मित्तल, न्यायमूर्ति संजय करोल और पीवी संजय कुमार के साथ पटना उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा ने शपथ ली।
भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) द्वारा इन्हें शपथ दिलाई गई। यह समारोह अदालत के नए भवन में सभागार में आयोजित हुआ। इस फैसले के बाद भी यह नहीं माना जा सकता कि यह विवाद इतनी आसानी से सुलझ जाएगा।
दरअसर केंद्र सरकार की तरफ से इस मुद्दे पर अकेले किरेण रिजिजू जब तक मैदान में थे तो मामला दूसरा था। उप राष्ट्रपति धनखड़ की टिप्पणी के बाद सुप्रीम कोर्ट के तेवर से ही यह साफ हो गया है कि दोनों पक्ष इतनी जल्दी हथियार डालने के लिए तैयार नहीं होंगे।
इसलिए ऐसे ही विवाद और टकराव की स्थिति हम आने वाले दिनों में भी देखते रहेंगे। विवाद पर सबसे पहले केंद्रीय क़ानून मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा है कि केंद्र हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम में सरकारी प्रतिनिधियों को शामिल करने की मांग अदालत के आदेश के मद्देनज़र ही कर रहा है।
इस विवाद में कई और चेहरे कूद पड़े हैं, जिस कारण यह न्यायिक विवाद अब धीरे धीरे राजनीति के मैदान का हिस्सा बनता नजर आ रहा है। बता दें कि कॉलेजियम सिस्टम वह प्रक्रिया है, जिससे सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति और तबादले किए जाते हैं।
कानून मंत्री ने इस पर अपनी राय देते हुए कहा है कि सरकार का क़दम सुप्रीम कोर्ट द्वारा नेशनल ज्यूडिशियल अप्वाइंटमेंट कमिशन एक्ट को रद्द करते वक़्त दिए सुझावों के अनुरूप है। किरेन रिजिजू ने ये बयान दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की एक टिप्पणी के बाद दिया है।
केजरीवाल ने एक अंग्रेज़ी अखबार की रिपोर्ट को ट्वीट करते हुए लिखा, ये बहुत ख़तरनाक है। जजों की नियुक्ति में किसी भी तरह का सरकारी हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।
हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति को लेकर सरकार और न्यायपालिका के बीच टकराव कोई नई बात नहीं है, लेकिन पिछले कुछ समय से टकराव गहराता दिख रहा है, ख़ास तौर पर केंद्रीय कानून मंत्री के उस बयान के बाद जिसमें उन्होंने कॉलेजियम सिस्टम को लेकर गंभीर सवाल उठाए हैं।
आम जनता के लिए इसे समझना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि इसी से तय होगा है कि आपके यानी आम नागरिक के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने वाली संस्था न्यायपालिका को कौन और कैसे चलाएगा।
ताज़ा बहस तब शुरू हुई जब 25 नवंबर को केंद्रीय क़ानून मंत्री किरेन रिजिजू ने जजों की नियुक्ति करने की पूरी प्रक्रिया को ही संविधान से परे बता दिया। केंद्रीय कानून मंत्री ने याद दिलाने की कोशिश की कि सुप्रीम कोर्ट ने अपनी समझ और कोर्ट के ही आदेशों को आधार बनाते हुए कॉलेजियम बनाया है।
इस प्रक्रिय के पक्ष और विपक्ष में अनेक लोगों के तर्क दिये गये हैं। दरअसल इसके पीछे के दोनों तरफ के तर्कों का अपना अपना दम है। एक तरफ वर्तमान सरकार इस दलील को स्वीकारती है कि कॉलेजियम पद्धति से चंद लोगों को ही आगे बढ़ने का मौका मिलता है।
सुप्रीम कोर्ट के जजों की पृष्टभूमि को देखा जाए तो इस बात में दम है। जजों के रिश्तेदार ही अलग अलग उच्च न्यायालयों से अंततः सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचते हैं।
बाद में यह भी खुलासा हो जाता है कि कौन किसका रिश्तेदार है। दूसरी तरफ कॉलेजियम पद्धति का समर्थन करने वालों की दलील है कि इस परंपरा को हटाने के पीछे मोदी सरकार की असली मंशा अपनी पसंद के लोगों को जज बनाया है ताकि न्यायपालिका पर भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के समर्थक लोगों का कब्जा हो जाए।
देश की दूसरी एजेंसियों का जो हाल अभी दिख रहा है, उससे यह संदेह गलत भी नहीं लगता। इसलिए तय है कि कि कानूनी प्रावधानों का चोला ओढ़कर दोनों ही पक्ष अपना वार करते रहेंगे। दरअसल सुप्रीम कोर्ट के हाल के कुछ फैसलों ने मोदी सरकार को असहज कर दिया है।
मामला चाहे नोटबंदी का हो अथवा पेगासूस का। सरकार के विरोध के बाद भी इन मामलों की सुनवाई होना ही मोदी सरकार के लिए परेशानी की बात है। भविष्य में कभी अगर इसके पन्ने दोबारा पलटे गये तो हो सकता है कि नये तथ्यों की मांग से ही यह सरकार परेशानी में पड़ जाएगी।
इसलिए शह और मात का खेल अभी जारी रहेगा। हो सकता है कि आने वाले लोकसभा चुनाव तक यह सरकार न्यायपालिका से विवाद से परहेज करे लेकिन यह साफ है कि इस विवाद की आग अंदर ही अंदर सुलगती रहेगी।