फिजूल के जमा खर्च में जमीनी मुद्दे गोल हो गये चुनाव में
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जल, जंगल और जमीन पर चर्चा नहीं
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बांग्लादेशी घुसपैठियों का मुद्दा प्रभावी नहीं
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मईया और गोगो दीदी दोनों रद्दी की टोकरी में
राष्ट्रीय खबर
रांचीः झारखंड के विधानसभा चुनाव के असली मुद्दों को भटकाने की पूरी कोशिश हुई है। इसके बाद भी आम जनता और खास तौर पर आदिवासी समाज अपने जल, जंगल और जमीन के मुद्दे पर ही केंद्रित है। इसी वजह से घुसपैठिया और बांग्लादेशियों का प्रचार अब तक धार नहीं पा रहा है।
इसके बीच ही अलग अलग किस्म की बयानबाजी के बाद मईंया योजना ने भी भाजपा की गोगो दीदी योजना को बस्ते में डालने पर मजबूर कर दिया है। कुल मिलाकर अब तक का जमीनी हकीकत यही है कि खास तौर पर आदिवासी इलाकों में अब तक भाजपा पूर्व की स्थिति को पूरी तरह अपने पक्ष में नहीं कर पायी है।
दूसरी तरफ शहरी इलाकों में अब लोकसभा चुनाव जैसी हालत नहीं है और यह माना जा सकता है कि भाजपा ने अपने जोरदार चुनाव प्रचार से कार्यकर्ताओँ को फिर से जोड़ने में कामयाबी पा ली है। भाजपा खेमा की परेशानी सिर्फ यह है कि इस बार के टिकट वितरण से उपजी नाराजगी क्या गुल खिलायेगी, इसका एहसास भाजपा के लोगों को भी सही तरीके से नहीं हो पा रहा है।
इस बार के झारखंड विधानसभा के चुनाव में इंडिया गठबंधन की कमान हेमंत सोरेन के पास है जबकि भाजपा की तरफ से सेनापति की भूमिका में असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा है। तय है कि इन दोनों नेताओं में से जो भी चुनावी सफलता हासिल करेगा, दिल्ली दरबार में उसका राजनीतिक कद और ऊंचा होगा।
वैसे भी भाजपा का एक वर्ग दबी जुबान से यह कह रहा है कि भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री के अगले दोनों दावेदार अभी झारखंड की चुनावी जिम्मेदारी उठा रहे हैं। इस चर्चा का अर्थ पहले शिवराज सिंह चौहान का नाम है और उसके बाद असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा की दावेदारी है।
खास तौर पर बांग्लादेश का मुद्दा असम में भाजपा की सफलता का कार्ड रहा है। हिमंता इस बार झारखंड में भी इसे ही आजमाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। चुनाव से पहले हेमंत सोरेन ने प्रदेश में मईया योजना चालू कर महिलाओं के बीच पार्टी की पहुंच को काफी हद तक बढ़ा दिया था। इसे महसूस करते हुए भाजपा की तरफ से भी गोगो दीदी योजना के फॉर्म भरे गये।
अब चुनावी रण तेज होने की वजह से महिलाओं से संबंधित यह दोनों ही मुद्दे शायद रद्दी की टोकरी में डाल दिये गये हैं। प्रधानमंत्री की चुनावी जनसभा में भी घुसपैठ का मुद्दा उभारने की कोशिश हुई है। इसका असर कितना हुआ है, यह बाद में स्पष्ट हो पायेगा। लेकिन इतना तय है कि हेमंत और हिमंता के टक्कर का असर सीधे दिल्ली दरबार तक दिखने लगा है।