जेपीसी की जांच की मांग भाजपा भी विपक्ष में रहते हुए कई बार कर चुकी है। तत्कालीन संसद ने इनमें से कई मांगों को स्वीकार भी किया है। बोफोर्स तोप सौदे में जेपीसी के गठन के बाद राजीव गांधी की सरकार ही चली गयी थी क्योंकि तब तक पूरे देश में यह भावना फैल चुकी थी कि इस सरकार ने बोफोर्स तोप के सौदे में दलाली खायी है।
उसके बाद टू जी और थ्री जी घोटाले की चर्चा सीएजी की रिपोर्ट में हुई तो भाजपा वाले उसे ले उड़े। इस तरीके से प्रचारित किया गया कि मानों बहुत बड़ा घोटाला हो गया। इसके साथ ही कोयला घोटाला में सीधे डॉ मनमोहन सिंह पर भी आरोप लगे। वैसे यह अब का सत्य है कि तत्कालीन सीएजी विनोद राय इस भाजपा सरकार के कृपा पात्र बने हुए हैं।
दूसरी तरफ इन दोनों आरोपों की जांच होने के बाद कोई गड़बड़ी नहीं पायी गयी। ऐसा तब हुआ जबकि इस बीच कई केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों को इन्हीं आरोपों में जेल भी जाना पड़ा। इसलिए अब जेपीसी की जांच अगर अडाणी मुद्दे पर होती है तो दिक्कत क्या है। दरअसल शॉर्ट-सेलर हिंडनबर्ग की रिपोर्ट आने के बाद उद्योगपति गौतम अदाणी लगातार विवादों में हैं।
अदाणी की संपत्ति आधी से भी कम हो गई है। हर रोज अदाणी समूह के शेयर्स में गिरावट हो रही है। उधर देश की मुख्य विपक्षी कांग्रेस समेत 13 विपक्षी दल इसे घोटाला बताकर संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी से जांच की मांग पर अड़े हैं। संसद के मौजूदा बजट सत्र में इस मांग पर लगातार हंगामा हो रहा है।
हालांकि, सरकार ने जेपीसी की मांग पर अभी तक कोई कदम नहीं उठाया है। दरअसल, संसद के पास कई तरह के काम होते हैं और इन्हें निपटाने के लिए सीमित समय होता है। संसद का बहुत सा काम सदनों की समितियों द्वारा निपटाया जाता है, जिन्हें संसदीय समितियां कहते हैं।
संसदीय समितियां दो प्रकार की होती हैं- स्थायी समितियां और तदर्थ समितियां। तदर्थ समितियां किसी खास उद्देश्य के लिए नियुक्त की जाती हैं और जब वो अपना काम समाप्त कर लेती हैं तथा अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत कर देती हैं, तब उनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी संसद की वह समिति होती है, जिसमें सभी पार्टियों की बराबर भागीदारी होती है।
जेपीसी को यह अधिकार मिला होता है कि वह किसी भी व्यक्ति, संस्था या किसी भी उस पक्ष को बुला सकती है और उससे पूछताछ कर सकती है, जिसको लेकर उसका गठन हुआ है। अगर वह व्यक्ति, संस्था या पक्ष जेपीसी के समक्ष पेश नहीं होता है तो यह संसद की अवमानना माना जाएगा। इसके बाद जेपीसी संबंधित व्यक्ति या संस्था से इस बाबत लिखित या मौखिक जवाब या फिर दोनों मांग सकती है।
संसदीय इतिहास पर नजर डालें तो अलग-अलग मामलों को लेकर कुल आठ बार जेपीसी का गठन किया जा चुका है। सबसे पहले जेपीसी का गठन साल 1987 में हुआ था, जब राजीव गांधी सरकार पर बोफोर्स तोप खरीद मामले में घोटाले का आरोप लगा था। दूसरी बार जेपीसी का गठन साल 1992 में हुआ था, जब पीवी नरसिंह राव की सरकार पर सुरक्षा एवं बैंकिंग लेन-देन में अनियमितता का आरोप लगा था।
तीसरी बार साल 2001 में स्टॉक मार्केट घोटाले को लेकर जेपीसी का गठन हुआ था। चौथी बार साल 2003 में जेपीसी का गठन भारत में बनने वाले सॉफ्ट ड्रिंक्स और अन्य पेय पदार्थों में कीनटाशक होने की जांच के लिए किया गया था। पांचवीं बार साल 2011 में टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच को लेकर जेपीसी का गठन हुआ था।
छठी बार साल 2013 में वीवीआईपी चॉपर घोटाले की जांच को लेकर जेपीसी का गठन हुआ। देश में मोदी सरकार आने के बाद पहली बार 2015 में भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास बिल को लेकर जेपीसी का गठन किया गया। साल 2016 में आठवीं और आखिरी बार एनआरसी मुद्दे को लेकर जेपीसी का गठन हुआ था। इसलिए भाजपा के विपक्ष में रहते हुए और सत्ता में रहते हुए भी जेपीसी का गठन हो चुका है।
इसलिए एक और जेपीसी के गठन से परहेज संदेह पैदा करता है। वैसे भी दिल्ली के मुख्यमंत्री ने सदन के भीतर इस अडाणी प्रकरण में जो कुछ कहा है, वह जेपीसी जांच की मांग को और मजबूत करता है क्योंकि केजरीवाल ने इस अडाणी प्रकरण पर सीधे नरेंद्र मोदी को ही जिम्मेदार ठहरा दिया है।
भाजपा के तमाम बड़े नेता राहुल गांधी की आलोचना तो कर रहे हैं पर अडाणी प्रकरण पर बोलने से परहेज कर रहे हैं। अकेले अमित शाह ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले की जांच कर रहा है और सच सामने आयेगा। जिन घोटालों के आरोपो से कांग्रेस की सरकार को जेपीसी गठन के लिए भाजपा ने मजबूर किया था। अब वैसे ही आरोपों से खुद को पाक साफ बताने के लिए भी भाजपा को ऐसी पहल करनी चाहिए।