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शॉर्ट सेलिंग और भारतीय बाजार की कमजोरी उजागर

शार्ट सेलिंग का नाम पहली बार सुना तो ध्यान नहीं गया। अब हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट आने के बाद मेरे जैसे कई लोग होंगे, जिन्होंने इसे समझने की कोशिश की होगी। दरअसल इसके मूल में शार्ट सेलिंग कम और हिंडनबर्ग की रिपोर्ट के तथ्यों को समझना अधिक था।

हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट का एक प्रमुख निष्कर्ष यह था कि अदाणी समूह की कंपनियों के शेयरों का मूल्यांकन असामान्य रूप से ऊंचे स्तरों पर है। रिपोर्ट जारी होने के बाद अदाणी समूह के शेयरों में बिकवाली शुरू हो गई। नतीजा हुआ कि अदाणी समूह के शेयरों का संयुक्त मूल्यांकन करीब 100 अरब डॉलर फिसल गया।

पूरी संभावना है कि हिंडनबर्ग रिसर्च ने शॉर्ट सेलिंग के जरिये भारी भरकम मुनाफा कमाया है। भारत में नीति निर्धारकों ने बाजार तंत्र को अच्छी तरह काम करने की स्वतंत्रता नहीं (अक्सर अनजाने में) दी है। इसका नतीजा यह होता है कि देश में आर्थिक गतिविधियां पूरी रफ्तार से आगे नहीं बढ़ पाती हैं।

भारत में शॉर्ट सेलिंग पर पाबंदी कम करने से सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कोई बड़ा इजाफा होगा। मगर इस तरह की पाबंदी उन अन्य तमाम अनावश्यक रोक-टोक की ओर इशारा करती है जो कहीं न कहीं भारतीय अर्थव्यवस्था में हर जगह व्याप्त हो चुके हैं।

इन सभी पाबंदियों से सुनियोजित तरीके से एक-एक कर निरंतर निपटना जरूरी है। विवाद उभरने से कमसे कम भारतीय शेयर बाजार की यह खामी उजागर हुई है और अब यह केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है कि वह भारतीय शेयर बाजार के इस छेद को बंद करे।

साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था पर अमेरिकी दखल को कम करने का भी कोई तंत्र विकसित किया जाना चाहिए। अब सवाल यह है कि कुछ भारतीय संगठनों ने क्यों शोध नहीं किया और अदाणी समूह के शेयरों और बॉन्ड की बड़े स्तर पर बिकवाली नहीं की?

अमेरिका के लोगों के बजाय भारतीय संस्थान एवं लोग शॉर्ट सेलिंग से मुनाफा कमा सकते थे। म्युचुअल फंडों के पास जानकारी, अनुभव, संसाधन हैं और सबसे बड़ी बात यह है कि उनकी शेयर बाजार में सीधी दिलचस्पी है।

चूंकि इस पूरी कहानी में भारतीय कंपनियां केंद्र में थीं, इसलिए भारत में म्युचुअल फंड कंपनियां हिंडनबर्ग रिपोर्ट के बाद उत्पन्न स्थिति का लाभ उठा सकती थीं। हिंडनबर्ग रिसर्च भारतीय वित्तीय बाजार को लेकर कोई विशेष तजुर्बा नहीं रखती है।

मगर तब भी अमेरिका की यह शॉर्ट सेलर मौके का फायदा ले गई जबकि भारतीय म्युचुअल फंड कंपनियां कुछ नहीं कर सकीं। यह तर्क दिया जा सकता है कि कभी-कभी देश में रहना फायदेमंद कम और नुकसानदेह ज्यादा हो सकता है। मगर यह तर्क यहां प्रभावी नहीं जान पड़ता है।

प्रश्न है कि भारत में म्युचुअल फंड कंपनियां हिंडनबर्ग की तरह फायदा क्यों नहीं उठा पाईं? इस वजह से यह मानना वाजिब है कि भारत में फंड प्रबंधकों को लगा कि अदाणी समूह के शेयरों की कीमतें वाकई असामान्य स्तर पर थीं। ऐसे में शेयरों में गिरावट से होने वाले नुकसान से भारत में म्युचुअल फंड बच गए।

भारत में नियम-शर्तें म्युचुअल फंडों को सीधे शॉर्ट सेलिंग करने से भले ही नहीं रोकती हैं, मगर किसी न किसी रूप में इससे दूर रहने की हिदायत देती हैं। इसमें शक की गुंजाइश नहीं कि नियम-कायदे अपनी जगह ठीक हैं मगर एक गलती तो अवश्य हुई है। यह सच है कि शॉर्ट सेलिंग काफी जोखिम भरा हो सकता है।

मगर शॉर्ट सेलिंग में बिल्कुल दांव नहीं लगाने या नाम मात्र का जोखिम लेने के बजाय सीमित स्तर पर दांव खेलने में कोई हर्ज नहीं है। दूसरे भारतीय वित्तीय संस्थानों पर विचार करते हैं तो इसी तरह का तर्क लागू होता है। यह कहानी केवल किताबों में लिखे नियमों तक ही सीमित नहीं हैं।

यह कहानी पूरे नीतिगत तंत्र की भी है जिसके दायरे में रहकर भारत में वित्तीय संस्थान काम करते हैं। सोच की बात करें तो समस्याएं और अधिक गंभीर हो जाती हैं। यह सोच ऐसी है जो भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) और भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) जैसे सार्वजनिक संस्थानों से लेकर वित्तीय संस्थानों के संचालन बोर्ड तक अपनी पैठ जमा चुकी है।

इसका परिणाम यह हुआ है कि आय का एक बड़ा हिस्सा संभवतः अमेरिका के संस्थानों और लोगों को चला गया है और भारत के लोग तमाशा देखते रह गए। भारत सरकार इस शॉर्ट सेलिंग कयास को बढ़ावा देने के बजाय इसे नियंत्रित कर सकती है। शॉर्ट सेलिंग की मदद से परिसंपत्ति कीमतों में आई असामान्य उछाल का बुलबुला फोड़ा जा सकता है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत में परिसंपत्ति बाजार अमेरिका या अन्य विकसित देशों की तरह अच्छी तरह नियंत्रित नहीं है। भारत में कंपनी संचालन और वित्तीय नियमन में सुधार की मांग बार-बार उठ रही है। यह मांग उठनी भी चाहिए। लेकिन अभी तो यह मुद्दा अर्थव्यवस्था का काम और राजनीति का अधिक हो चुका है। लिहाजा त्वरित कार्रवाई और निदान अभी संभव नहीं।

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