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आम जनता का हित देखना अदालत की जिम्मेदारी

सुप्रीम कोर्ट में अब अडाणी समूह के शेयरों का मामला पहुंच गया है। हिंडनबर्ग की रिपोर्ट आने के बाद देश में सबसे तेजी से आसमान की बुलंदियों तक पहुंचने वाले इस घराने के कारोबार पर संदेह होना स्वाभाविक है। ऐसा इसलिए है क्योंकि दूसरे औद्योगिक घरानों का कारोबारी विस्तार इतनी तेज गति से नहीं हुआ है।

दूसरी तरफ आयकर के आंकड़े बताते हैं कि देश के पहल दस करदाताओं में भी अडाणी का नाम नहीं है। इसलिए जो कुछ कहा गया है, इस पर अगर संसद पहल नहीं करती है तो अदालत का हस्तक्षेप सही है।

इतनी तो कहा ही जा सकता है कि अडाणी समूह को हुए तात्कालिक नुकसान से जाहिर है कि उसके कारोबार को लेकर विश्वसनीयता में तेज गिरावट आई है। मगर इस सबके बीच अहम पक्ष यह है कि अडाणी समूह के कारोबार पर भरोसा करके पैसा लगाने वाले आम निवेशकों की पूंजी कितनी सुरक्षित है या फिर उस पर कितना जोखिम है।

इसी के मद्देनजर दो जनहित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने शेयर बाजार में निवेशकों को हुए नुकसान पर चिंता जताई। साथ ही अदालत ने केंद्र सरकार और भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड यानी सेबी से पूछा कि मौजूदा नियामक तंत्र को कैसे मजबूत किया जाए, ताकि भविष्य में निवेशकों के हित को सुरक्षित रखा जा सके।

गौरतलब है कि हिंडनबर्ग की रिपोर्ट आने के बाद बाजार में मची उथल-पुथल के बीच अडाणी समूह के शेयरों की कीमतों में लगातार गिरावट आ रही है और कंपनी के मूल्य में भारी कमी आई है। अदालत का यह सवाल केंद्र सरकार के साथ शेयर बाजार पर नजर रखने वाली सरकारी एजेंसियों को भी संदेह के घेरे में ला देता है।

इस बीच यह सूचना भी सामने आ गयी है कि अडाणी का कारोबार देखने वाली कंपनी के एक साझेदार और अडाणी के एक नजदीकी रिश्तेदार को इस सरकार ने सेबी में शामिल कर रखा है। वैसे यह जगजाहिर तथ्य है कि आज बाजार का जो स्वरूप हो चुका है, उसमें पूंजी भारत से निर्बाध रूप से कहीं भी आ-जा रही है।

एक तरह से ज्यादातर लोग अब बाजार में हैं और ऐसे में सबसे ज्यादा जोखिम में वह आम निवेशक है, जो भरोसा करके कहीं भी कुछ निवेश करता है। अगर इस समूची गतिविधि में निवेशकों के हित की सुरक्षा के लिए कोई मजबूत तंत्र नहीं होगा, तो यह ढांचा ढह सकता है और इसका सबसे ज्यादा नुकसान आम लोगों को ही होगा।

इस लिहाज से देखें तो निवेशकों के पक्ष से सुप्रीम कोर्ट का यह सवाल वाजिब है कि हम कैसे सुनिश्चित करेंगे कि वे सुरक्षित हैं और भविष्य में ऐसा फिर नहीं होगा। यों सेबी ने अदालत को बताया है कि बाजार नियामक और अन्य वैधानिक निकाय आवश्यक कार्रवाई कर रहे हैं।

दरअसल, ‘हिंडनबर्ग रिसर्च’ की रिपोर्ट में अडाणी समूह पर पूंजी और कंपनी के आंकड़ों से जुड़ी अनियमितताओं के जैसे आरोप लगाए गए, उसे अडाणी समूह ने दुर्भावनापूर्ण बता कर खारिज कर दिया। मगर सिर्फ इतने भर से इसके कई तरह के असर सामने आने तय हैं।

शायद इसी तरह की आशंकाओं के मद्देनजर अदालत की पीठ ने निवेशकों की सुरक्षा के लिए मजबूत नियामक तंत्र को लागू करने के अलावा एक विशेषज्ञ समिति का भी प्रस्ताव रखा है, जिसमें प्रतिभूति क्षेत्र, अंतरराष्ट्रीय बैंकिंग क्षेत्र के विशेषज्ञ और एक पूर्व न्यायाधीश के रूप में मार्गदर्शक व्यक्ति शामिल हो सकते हैं। ‘

हिंडनबर्ग रिसर्च’ की रिपोर्ट का असर कितने वक्त रहेगा और किस अन्य रूप में सामने आएगा, कहा नहीं जा सकता। लेकिन अब तक बाजार में जो उतार-चढ़ाव हुआ है, उसकी जटिलताओं पर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं देने की वजह से सामान्य निवेशकों को इसका खमियाजा उठाना पड़ सकता है।

इसके अलावा, यह भी माना जा रहा है कि संबंधित बैंकों और सेबी को भी इससे नुकसान हो सकता है। हालांकि इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि अतीत में ऐसे मामलों के बावजूद शेयर बाजार संभला है। इसी संदर्भ में आम निवेशकों के हित में सुप्रीम कोर्ट ने जो सवाल उठाए हैं, अगर उसका कोई स्पष्ट हल सामने आता है, तो मौजूदा मुश्किलें दूर करने में मदद मिल सकती है।

वैसे अडाणी को जिस तरीके से भाजपा क्लीन चिट देने पर अड़ी हुई है, उन्हें यह याद रखना चाहिए कि काफी अरसा पहले भी इसी औद्योगिक समूह का नाम पहले भी केतन पारिख के मामले में जुड़ चुका था।

वैसे संसद के भीतर का हाल देखकर तो यही लगता है कि यह मुद्दा उठने से खुद मोदी असहज हैं और अदालत से कॉलेजियम विवाद के पहले से ही सरकार की ठनी हुई है। जेपीसी बनाने से पीछे हटने के बाद अगर सुप्रीम कोर्ट ने दस्तावेजों की मांग कर दी तो क्या फिर सरकार पेगासूस की तरह राष्ट्रीय सुरक्षा की आड़ में जानकारी देने से पीछे हट जाएगी।

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