जोशीमठ को सिर्फ एक शहर या छोटा सा इलाका मानना बहुत बड़ी गलती होगी। इस हिमालय की जमीन नई और कमजोर होने की जानकारी तो हमें कई दशक पहले ही दे दी गयी थी। वैज्ञानिकों ने यह बता दिया था कि इस अत्यंत संवेदनशील इलाके में ज्यादा होशियारी दिखाने का बहुत खतरनाक नतीजा हो सकता है।
इसके अलावा चेतावनी इस बात की भी है कि कभी भी हिमालय के बहुत बड़े इलाके में बड़ा भूकंप आ सकता है। हमलोगों ने अपने फायदे के लिए इन तमाम चेतावनियों को नजरअंदाज किया है। अब जोशीमठ में खतरा बढ़ते देख फिर से उन्हीं बातों की चर्चा होने लगी है।
वर्तमान स्थिति यह है कि जोशीमठ का इलाका धीरे धीरे धंसता जा रहा है। किसी भी क्षण वहां बड़ा भूस्खलन भी हो सकता है। इसलिए प्रशासन वहां से लोगों को हटाने के काम में जुटा है। लेकिन अभी से कई माह पहले जब यहां के लोगों ने राज्य के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को पत्र लिखा था तो मुख्यमंत्री ने इस पर ध्यान क्यों नहीं दिया, इस सवाल का उत्तर नहीं मिला है।
हालत यह है कि वहां के और 68 घरों में रात भर में दरार पड़ चुकी है। इन घरों से भी लोगों को हटा लिया गया है। अब इतना कुछ होने के बाद अधिकारियों का दौरा होने लगा है। एक केंद्रीय दल भी वहां जा रही है, जिसे केंद्रीय गृह मंत्रालय ने भेजा है।
इससे पहले गये दल ने यह अनुशंसा की थी कि वहां जो भवन क्षतिग्रस्त हो चुके हैं, उन्हें तोड़ना पड़ेगा। घर तोड़ने का यह काम भी केंद्रीय दल के यहां होने के दौरान प्रारंभ किया जाएगा। लेकिन जनता की शिकायत पर सारा प्रशासन और सरकार अब तक कान बंद कर क्यों पड़ा रहा, इस सवाल का उत्तर देने के लिए कोई तैयार नहीं है। आंकड़े बताते हैं कि वहां कुल 678 घर इसकी चपेट में आ चुके हैं।
इन घरों में रहने वाले लोगों को हटना पड़ा है। वहां के घरों के अलावा सड़कों पर भी दरारें चौड़ी होती जा रही है। पास में एनटीपीसी के जलविद्युत केंद्र का काम चल रहा है, जिसे स्थानीय निवासी इस हादसे के लिए जिम्मेदार मानते हैं। लेकिन सवाल सिर्फ अकेले जोशीमठ का नहीं है। विकास के नाम पर पर्यावरण से खिलवाड़ की शिकायतें तो पहले भी मिलती रही है। हिमालय जैसे संवेदनशील इलाके में इस पर शोध के बाद भी तमाम चेतावनियों को नजरअंदाज क्यों किया जाता है,
यह बड़ा सवाल है। यह किसी एक शहर का नहीं बल्कि राष्ट्रीय चिंता का विषय है क्योंकि भारत के हिंदी भाषी प्रदेशों के नदियों को हिमालय से ही मूल जल हासिल होता है। इसलिए यह समझा जा सकता है कि अगर हिमालय में कोई बड़ा पर्यावरण असंतुलन हुआ तो उसका अगर हिमालय से निकली नदियों के पानी से सिंचाई करने वाले पूरे भूभाग पर पड़ेगा।
जोशीमठ के चर्चा होने के बाद विशेषज्ञों ने उत्तराखंड के ही दो अन्य शहरों को भी इस किस्म के खतरे में बता दिया है। इस बात को समझने के लिए किसी अत्यधिक ज्ञान की भी आवश्यकता नहीं है कि किसी भी मिट्टी पर उसकी सहनशक्ति से अधिक का दबाव पड़ने पर क्या होता है। जमीन नीचे की तरफ धंसने लगती है।
यही अभी जोशीमठ में होता हुआ दिख रहा है जबकि हिमालय के पूरे इलाके में सिर्फ हम ही नहीं बल्कि पड़ोसी देश चीन भी दबाव बढ़ाता जा रहा है। दोनों तरफ का यह दबाव हिमालय जब तक झेल रहा है तब तक तो ठीक है लेकिन उसके बाद क्या होगा, इसे समझा जा सकता है।
चीन की तरफ से तो ब्रह्मपुत्र पर विशाल डैम बनाये जा रहे हैं। चीन के कब्जे वाले तिब्बत के इलाके से नदियों का पानी चीन अपने रेगिस्तानी इलाकों तक पहुंचाना चाहता है। दूसरी तरफ कूटनीतिक स्तर पर भारतीय चुनौती को पछाड़ने के लिए वह पानी को भी बतौर हथियार इस्तेमाल कर रहा है।
ब्रह्मपुत्र पर डैम बनाकर वह पहले तो पानी को रोक लेगा। दूसरी तरफ जब कभी भी जरूरत पड़े तो वह डैम से पानी की निकासी कर उत्तर पूर्वी भारत के कई इलाकों में अप्रत्याशित बाढ़ जैसी परिस्थिति भी पैदा कर सकता है। इससे इन इलाकों में होने वाली खेती भी प्रभावित होगी।
लेकिन मसला सिर्फ भारत और चीन के बीच की तनातनी का ही नहीं है। हिमालय पर किसी भी छोर से सहने से अधिक का दबाव पड़ने के बाद कहीं से भी यह टूट सकता है या धंस सकता है। वैसी स्थिति में क्या कुछ खतरा हो सकता है, उसका वैज्ञानिक आकलन भी नहीं किया जा सकता है।
इसलिए हिमालय के बारे में वैज्ञानिकों ने पहले से जो चेतावनी दे रखी है, इस पर विचार कर ही विकास की नई परियोजनाओं को मूर्त रूप दिया जाना चाहिए। खास तौर पर वहां की जमीन अब और बोझ झेलने की स्थिति में है अथवा नहीं, इस पर विचार करना बहुत जरूरी हो गयी है।