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धनखड़ को पहली बार बड़ा झटका

अक्सर ही सरकार के पक्ष में बैटिंग करने वाले उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ को पहली बार सार्वजनिक तौर पर आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है। यह आलोचना किसी राजनीतिज्ञ की नहीं बल्कि संविधान के जानकारों की हैं।

इनमें से कई ने तो सुप्रीम कोर्ट में भी न्यायाधीश की जिम्मेदारी निभायी है। लिहाजा बात बात में अपने वकील होने की दलील देने वाले धनखड़ को कानून के अखाड़े में बड़े पहलवानों को झेलना पड़ रहा है।

पहले भी कई बार वह यह कह चुके हैं कि देश में कानून बनाने का शीर्ष अधिकार संसद के पास है और संसद द्वारा पारित को कोई चुनौती नहीं दे सकता। इसके उत्तर में जस्टिस कूरियन ने कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय की मूल जिम्मेदारी ही संविधान और उसमें निहित भावना की रक्षा करना है।

इसी वजह से संविधान निर्माताओं ने काफी सोच समझकर जिम्मेदारियों का बंटवारा किया है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट के पास यह संवैधानिक अधिकार है कि वह संसद द्वारा पारित किसी भी कानून के संवैधानिक पहलु की जांच कर सकता है।

दरअसलसरकार ने इस महीने की शुरुआत में पारित वक्फ अधिनियम में विवादास्पद संशोधनों के दो मुख्य पहलुओं पर 5 मई तक रोक लगाने पर सहमति जताई है। इसने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि वह न तो वक्फ बोर्डों में नियुक्तियां करेगी और न ही अधिसूचित और पंजीकृत वक्फ संपत्तियों, जिसमें वक्फ-बाय-यूजर भी शामिल है, के चरित्र को बदलेगी।

यह आश्वासन भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना की अगुवाई वाली पीठ द्वारा सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से कुछ कठिन सवाल पूछे जाने के बाद आया और संकेत दिया कि वह कानून के कुछ पहलुओं के संचालन पर रोक लगा सकती है।

सुप्रीम कोर्ट के इशारे के बाद केंद्र का रुकना स्वागत योग्य है। इससे अल्पसंख्यकों के संवैधानिक रूप से गारंटीकृत मौलिक अधिकारों से जुड़े मुद्दे पर अधिक विचार-विमर्श होना चाहिए। 5 मई को सुप्रीम कोर्ट केंद्र को फिर से सुनेगा और तय करेगा कि उसे अदालतों में कानून का पूरी तरह से परीक्षण होने तक यथास्थिति की रक्षा करनी चाहिए या नहीं।

गहरी होती खाई के समय, यथास्थिति की सुरक्षा से मिलने वाली राहत महत्वपूर्ण है। यह सुनिश्चित करेगा कि अधिकारों का कोई अतिक्रमण न हो जो कानून में किसी कमजोरी को खोजने वाले न्यायालय के संभावित परिणाम को एक अकादमिक अभ्यास में बदल सकता है।

विराम इसलिए भी आवश्यक था क्योंकि एक प्रमुख प्रावधान जो वक्फ-बाय-यूजर की अवधारणा को दूर करता है – जहां मुस्लिम धार्मिक या धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए लंबे समय तक इस्तेमाल की गई भूमि को वक्फ माना जाता है, भले ही वह इस रूप में पंजीकृत न हो – 8 अप्रैल को राष्ट्रपति द्वारा कानून को मंजूरी देने के बाद लागू हुआ।

विपक्ष और अल्पसंख्यक आवाजों ने तर्क दिया है कि वक्फ-बाय-यूजर को खत्म करने से कम से कम आधे वक्फ संपत्तियों की स्थिति पर प्रश्नचिह्न लग सकता है।

जबकि सरकार ने इस अवधारणा के दुरुपयोग का हवाला दिया, जो कुछ मामलों में वैध है, तथ्य यह भी है कि यह 1935 से भारतीय अदालतों द्वारा मान्यता प्राप्त कानून का हिस्सा रहा है। यहां तक ​​​​कि 2019 के अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले ने वक्फ-बाय-यूजर की वैधता को मान्यता दी पीठ ने पूछा कि क्या सरकार खुले तौर पर कहेगी कि वह मंदिर बोर्डों में अल्पसंख्यकों को भी नियुक्त करेगी।

ये जटिल मुद्दे हैं – आस्था से जुड़े हैं, और अल्पसंख्यकों की चिंताओं को सुनने और संबोधित करने के लिए एक विचारशील लोकतंत्र में जगह भी है। कुल मिलाकर संसद के भीतर और बाहर भी सरकार के पक्ष में माहौल बनाने की कोशिशों को पहली बार स्पीड ब्रेकर का सामना करना पड़ा है।

वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा कि जब इंदिरा गांधी के खिलाफ अदालती फैसला आया तो यह श्री धनखड़ को स्वीकार्य था और अब मोदी सरकार के खिलाफ फैसला आया तो वह इसकी आलोचना कर रहे हैं। ऐसा दोहरा मापदंड न्याय नहीं है।

यूं तो हम सभी ने राज्यसभा में यह बार बार देखा है कि वह खास तौर पर विरोधी सदस्यों के भाषण में अधिक टोकाटाकी करते हैं और सत्ता पक्ष के प्रति उदार रवैया अपनाते हैं। चूंकि वह सब कुछ संसद के भीतर होता है, लिहाजा उस पर अधिक बहस नहीं होती।

सार्वजनिक मंचों पर जब वह सरकार के पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश करते हैं तो जाहिर तौर पर उसकी आलोचना होती है। यह पहला अवसर है जब बयान देने के बाद वह सुप्रीम कोर्ट में जज रह चुके कानून के जानकारों की आलोचनाओं के केंद्र में आ गये हैं।

मसला वक्फ अथवा राज्यपालों की कारगुजारियों का नहीं है। यह दरअसल बहुमत के आधार पर किसी भी मनमाने फैसले को लागू कराने की सोच का विरोध है। धनखड़ को इसका एहसास कितना हो पाया है, यह तब पता चलेगा जब आग उनके घर तक आ पहुंचेगी।

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