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चल उड़ जा रे पंछी कि अब यह देस .. .. .. ..

 

जी हां चुनाव निपट गये हैं तो अब चुनावी पक्षियों के उड़ जाने का वक्त है। सिर्फ झारखंड और महाराष्ट्र में अब तक यह पक्षी मंडरा रहे थे। उनका काम निपट गया है तो दूसरे ठिकाने की तरफ निकल ही जाएंगे।

लेकिन इतना तो तय है कि इनमें से एक पक्षी ने झारखंड भाजपा के जमीनी कार्यकर्ताओं को खुश कर दिया है। हर मंडल अध्यक्ष हैपी है क्योंकि जेब भरी हुई है। कार्यकर्ताओं को साथ रखने के लिए जेब खर्च तो मिला था, उसमें से काफी कुछ बचा लिया है जो बाद में दूसरे रुप में सामने आयेगा।

अचानक देखेंगे कि जिसके पास स्कूटर तक नहीं था, एक काले रंग की स्कॉर्पियों मे घूमने लगा है और आंख पर काले रंग का चश्मा भी चढ़ गया है। सब वक्त वक्त की बात है प्यारे।

जो छूट गये हैं, उन्हें मान लेना चाहिए कि अभी और मेहनत करने की जरूरत है। चुनाव की गिनती जारी रहने के बीच ही कौन टिकेगा और कौन उड़ेगा, यह साफ होने लगा है।

जी नहीं किसी कंफ्यूजन में मत रहिए। मैं नेता नहीं कार्यकर्ताओं की बात कर रहा हूं। आज तक अपनी कामयाबी का जो कुछ दावा किया था, उसका सच अब सामने आने वाला है। सो चुनाव परिणाम जारी होने के तुरंत बाद नये सिरे से अग्निपरीक्षा का दौर प्रारंभ हो जाएगा।

इससे अलग अभी देश का मसला अपने अडाणी जी है, जिनकी अमेरिका में कुछ ऐसी चर्चा हुई तो उसकी आंच में यहीं कई लोग झूलसने लगे हैं। विरोधियों को भी नये सिरे से आरोप मढ़ने का नया अवसर प्राप्त हो गया है।

लेकिन मैं इस बात को लेकर हैरान हूं कि घूसखोरी का मामला भारत में है तो भारत में इसकी भनक किसी को नहीं मिली या जानबूझकर यहां मामले को दबाया गया। पहले भी संसद में अधिक कीमत पर कोयला बेचने की बात तो सामने आ गयी थी।

फिर वह कौन सी वजह रही कि सरकार ने तब इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया। अब क्या अमेरिका अपने यहां के अपराधी को ले जाने की मांग कर देगा। इसी बात पर एक पुरानी फिल्म का गीत याद आने लगा है। वर्ष 1957 में फिल्म बनी थी भाभी। इस फिल्म के इस गीत को लिखने के बाद संगीत में ढाला था राजेंद्र कृष्ण ने। इसे मोहम्मद रफी ने अपना स्वर दिया था। गीत के बोल कुछ इस तरह से हैं।

चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देस हुआ बेगाना
खतम हुए दिन उस डाली के जिस पर तेरा बसेरा था
आज यहाँ और कल हो वहाँ ये जोगी वाला फेरा था
ये तेरी जागीर नहीं थी चार घड़ी का डेरा था

सदा रहा है इस दुनिया में किसका आब-ओ-दाना
तूने तिनका-तिनका चुनकर नगरी एक बसाई
बारिश में तेरी भीगी पाख़े, धूप में गर्मी खाई
ग़म ना कर जो तेरी मेहनत तेरे काम ना आई
अच्छा है कुछ ले जाने से देकर ही कुछ जाना

भूल जा अब वो मस्त हवा, वो उड़ना डाली-डाली
जग की आँख का कांटा बन गई चाल तेरी मतवाली
कौन भला उस बाग को पूछे, हो ना जिसका माली
तेरी किस्मत में लिखा है जीते जी मर जाना

रोते हैं वो पंख पखेरू, साथ तेरे जो खेले
जिनके साथ लगाये तू ने अरमानों के मेले
भीगी अँखियों से ही उनकी आज दुआएं ले ले
किसको पता अब इस नगरी में कब हो तेरा आना
चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देस हुआ बेगाना

खैर अब चुनाव में जिनकी कुर्सी जा रही है, वे भी दूसरा ठिकाना तलाश सकते हैं, यह वर्तमान भारतीय राजनीति का कड़वा सच है। वैसे दिल्ली में तो चुनाव के पहले ही आया राम गया राम का खेल प्रारंभ हो चुका है।

आम आदमी पार्टी से एक नेता गये तो भाजपा से एक नेता आये। यह खेल तेज हो रहा है। अपने अडाणी जी के चक्कर में आंध्रप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री जगन रेड्डी का नाम आ गया, उनके दिन फिर से बुरे हो गये। बहन शर्मिला तक ने कह दिया कि उसके अपने भाई की करतूत से पूरे आंध्रप्रदेश का सर शर्म से झूक गया है।

पता नहीं इंडियन पॉलिटिक्स में अब शर्म बची भी है अथवा नहीं। कहीं कमी रह गयी हो तो अब पार्टी के बागियों को मनाने का दौर भी चालू होने वाला है। बस थोड़ी सी प्रतीक्षा कर लीजिए। जिनके हाथ लॉटरी नहीं लगी है, उन्हें तो नया देश खोजना पड़ेगा ताकि राजनीति का कारोबार चलता रहे। कुल मिलाकर भारतीय राजनीति की वर्तमान हालत भी दिल्ली के धुंध और धुआं जैसी हो गयी है। इस घने कृत्रिम कोहरे में कुछ भी साफ साफ नजर नहीं आ रहा है तो मौसम के बदलने का इंतजार कीजिए।

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