8 जुलाई को जम्मू के कठुआ शहर से 124 किलोमीटर दूर बदनोटा गांव में सेना के काफिले पर आतंकवादियों द्वारा घात लगाकर किए गए हमले में पांच भारतीय सेना के जवान मारे गए थे। यह हमला हिजबुल मुजाहिदीन के ऑपरेटिव बुरहान वानी की पुण्यतिथि पर भी हुआ, जो 8 जुलाई 2016 को दक्षिण कश्मीर में एक मुठभेड़ में मारा गया था।
यह राज्य में 48 घंटों के भीतर चौथी आतंकी घटना है और पिछले कुछ महीनों में हमलों की श्रृंखला में नवीनतम है, विशेष रूप से जम्मू क्षेत्र में, जिससे जम्मू और कश्मीर में आतंकवाद की एक नई प्रवृत्ति को बल मिला है जो राजौरी-पुंछ क्षेत्र की ओर बढ़ रही है। 9 जून को, आतंकवादियों ने रियासी जिले में एक बस पर हमला किया जिसमें नौ तीर्थयात्रियों की मौत हो गई और 33 घायल हो गए, जिस दिन प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी तीसरे कार्यकाल के लिए शपथ ले रहे थे।
तीर्थयात्रियों पर यह हमला एक नया निचला स्तर था। 2003 में ऑपरेशन सर्प विनाश और उसके बाद स्थानीय लोगों, खासकर गुज्जर-बकरवाल समुदाय के समर्थन से इस पर काबू पाया गया। सुरक्षा बलों पर घात लगाकर हमला करने की लगातार घटनाओं के कारण कई लोग हताहत हुए हैं, जो भारतीय सेना जैसे उच्च प्रशिक्षित और पेशेवर बल के लिए अस्वीकार्य है। इसके लिए मानक संचालन प्रक्रियाओं का सख्ती से पालन करने और बेहतर संचालन की आवश्यकता है।
जबकि नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर संघर्ष विराम काफी हद तक कायम है, आतंकी घटनाओं में बढ़ोतरी चिंता का विषय है – खासकर हिंसा में बदलाव। ऐसे कई कारक हैं जो इस प्रवृत्ति को जन्म दे सकते हैं। इनमें से एक प्रमुख कारक चीन के साथ 2020 के गतिरोध के बाद पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर बड़ी संख्या में सैनिकों की फिर से तैनाती के साथ जमीन पर खालीपन है। इसके परिणामस्वरूप स्थानीय खुफिया जानकारी में कमी आई है।
उग्रवाद को जारी रखने के लिए नए रास्ते खोजने की कोशिश कर रहे आतंकवादी समूहों द्वारा आधुनिक लेकिन आसानी से उपलब्ध तकनीक का उपयोग भी बढ़ रहा है। इससे पहले पुंछ में घात लगाकर हमला: आतंकियों ने चीनी कवच-भेदी गोलियों का इस्तेमाल किया, इलाके की पहले से टोह ली थी। जम्मू-कश्मीर के पुलवामा जिले के लेथपोरा गांव में कलाश्निकोव और ग्रेनेड के साथ सीआरपीएफ कैंप पर हमला करने वाले जैश-ए-मोहम्मद के तीन फिदायीन सदस्यों ने रविवार को स्टील-कोर की गोलियां चलाईं, जो पहली बार शरीर के कवच को भेद सकती हैं।
जम्मू-कश्मीर के पुलवामा जिले के लेथपोरा गांव में कलाश्निकोव और ग्रेनेड के साथ सीआरपीएफ कैंप पर हमला करने वाले जैश-ए-मोहम्मद के तीन फिदायीन सदस्यों ने रविवार को स्टील-कोर की गोलियां चलाईं, जो शरीर के कवच को भेद सकती हैं। भारत में पहली बार आतंकियों ने ऐसी गोलियों का इस्तेमाल किया है। ये गोलियां सीआरपीएफ के एक जवान के लिए जानलेवा साबित हुईं, क्योंकि गोली उनकी बुलेटप्रूफ शील्ड को भेद गई।
सीआरपीएफ के महानिरीक्षक रविदीप साही ने बताया, गोली शील्ड को भेदकर उन्हें लगी। हालांकि सीआरपीएफ के जवानों ने हमलावर को मार गिराया, लेकिन हमने एक जवान को खो दिया। सुरक्षा अभियानों में विफलता ने स्थानीय आबादी और राज्य के बीच विश्वास को भी नुकसान पहुंचाया है।
विदेशी आतंकवादियों द्वारा एलओसी पार करके हमलों की अगुआई करने से लेकर, पाकिस्तान पर बढ़ते अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण स्थानीय आतंकवादियों को आगे लाने का चलन बढ़ गया है, ताकि उग्रवाद को और अधिक घरेलू रूप दिया जा सके। कुछ हमलों के पीछे नए आतंकवादी समूहों का भी दावा किया जा रहा है। ये पहलू नई चुनौतियां पेश करते हैं। स्थिति से निपटने के लिए सिर्फ़ सैन्य संख्या बढ़ाने से कहीं ज़्यादा बहुस्तरीय रणनीति की ज़रूरत है।
सरकार के उच्चतम स्तर पर सभी हितधारकों को शामिल करते हुए त्वरित और निर्णायक कार्रवाई समय की मांग है। इस बार की आतंकी घटनाओं की खास बात यह भी है कि अचानक से आतंकवादी घटनाओं में वृद्धि के बारे में खुफिया सूचनाओं की शायद भारी कमी हो गयी है। इस बात को भी याद रखा जाना चाहिए कि जम्मू कश्मीर में विधानसभा का चुनाव कराने का एलान होने के बाद से ही ऐसी घटनाएं बढ़ रही है।
लिहाजा इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए कि क्या स्थानीय स्तर की राजनीति को चुनाव से परहेज है अथवा अब भी पाकिस्तान समर्थक हथियारबंद गिरोहों को स्थानीय जनता का समर्थन प्राप्त है। पूर्व में सुरक्षा बलों पर जो पत्थरबाजी होती थी, वह अब बंद हो चुकी है और वहां विकास कार्य भी होने का दावा किया गया है। ऐसे में आतंकवादी घटनाओं में अचानक क्यों बढ़ोत्तरी हो रही है, यह बड़ा सवाल बनकर उभर रहा है। इसलिए सुरक्षा संबंधी मुद्दों के साथ साथ विकास कार्यों के दावों की हकीकत को भी जान समझ लेना जरूरी हो गया है।