यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि औपनिवेशिक भारत में राजनीतिक दल सिर्फ चुनावी राजनीति के लिए नहीं उभरे थे। निस्संदेह, ब्रिटिश राज्य ने उत्तरदायी सरकार और समुदायों के उचित प्रतिनिधित्व के प्रति अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की। फिर भी, एक राजनीतिक संघ की अपेक्षित भूमिका औपनिवेशिक राज्य को सुचारू रूप से कार्य करने की सलाह देना थी। कांग्रेस, मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा की प्रारंभिक वृद्धि इसको प्रदर्शित करती है।
20वीं सदी के पहले दशक में राष्ट्रवाद के उदय ने राजनीतिक समूहों को अपनी मांगों पर जोर देने के लिए नई राजनीतिक तकनीकों का आविष्कार करने के लिए प्रोत्साहित किया। साथ ही, व्यापक आधार वाली जन लामबंदी की भी आवश्यकता थी। इस संदर्भ में, राजनीतिक कार्रवाई के रूप में सार्वजनिक विरोध अस्तित्व में आया। स्वतंत्रता आंदोलन में महात्मा गांधी ने विरोध की धारणा को अधिक सार्थक और प्रभावी बनाने के लिए सत्याग्रह का विचार पेश किया।
इसका मतलब यह है कि एक विचारशील मांग पर जोर देने के लिए सत्याग्रह के रूप में विरोध को सावधानीपूर्वक आयोजित किया जाना चाहिए। उन्होंने एक व्यक्तिगत सत्याग्रही से बड़े उद्देश्य से अपने जुड़ाव पर पुनर्विचार करने को कहा। अंततः, गांधी कोई भी बड़ा विरोध प्रदर्शन आयोजित करने से पहले जनमत बनाने के इच्छुक थे।
यही एक कारण था कि गांधीवादी विरोध उनके सामाजिक कार्यों से गहराई से जुड़ा हुआ था। सामूहिक कार्रवाई के रूपों पर गांधीवादी प्रभाव स्वतंत्रता के बाद भी बना रहा। भले ही चुनावी राजनीति भारत में राजनीतिक व्यवस्था के निर्णायक भविष्य के रूप में उभरी, राजनीतिक दलों ने सामाजिक कार्रवाई के विचार को नहीं छोड़ा।
एक तरह से, चुनावी राजनीति को विभिन्न वैचारिक सुविधाजनक बिंदुओं से व्यापक सामाजिक परिवर्तन प्राप्त करने के एक उपकरण के रूप में देखा गया। इससे कई सामाजिक संगठनों का प्रसार हुआ। 1950 के दशक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जमात-ए-इस्लामी के प्रसार और बाद के वर्षों में विश्व हिंदू परिषद के गठन को भी इसी राजनीतिक संदर्भ में देखा जाना चाहिए। विरोध राजनीति की उत्तर-औपनिवेशिक कहानी में 1970 के दशक में दो महत्वपूर्ण घटनाक्रम बहुत महत्वपूर्ण थे।
एक ओर देश में एक नये प्रकार का जन-आन्दोलन खड़ा हुआ। विस्थापन के खिलाफ आंदोलन, सम्मान और समानता के लिए दलित और आदिवासी संघर्ष, और पितृसत्तात्मक प्रभुत्व के विभिन्न रूपों के खिलाफ महिला आंदोलन ने विरोध राजनीति की प्रकृति को महत्वपूर्ण तरीके से फिर से परिभाषित किया। इंदिरा गांधी की सत्तावादी नीतियों के खिलाफ जयप्रकाश नारायण का प्रसिद्ध आंदोलन एक महत्वपूर्ण संदर्भ बिंदु था।
इन आंदोलनों ने इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि सामाजिक क्षेत्र को हमेशा राजनीतिक बातचीत और संवाद के स्थल के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए। सामाजिक पर जोर देने से उन्हें मुख्यधारा की पार्टी राजनीति को प्रभावित करने की जबरदस्त क्षमता मिली। गौरतलब है कि वीएचपी ने 1980 के दशक की शुरुआत में अपना राम मंदिर आंदोलन शुरू किया था।
इसका उद्देश्य राम के जन्मस्थान को चिह्नित करने के लिए अयोध्या में बाबरी मस्जिद स्थल पर मंदिर के निर्माण के लिए हिंदुओं को एकजुट करना था। इस आंदोलन के जवाब में, 1986 में एक गैर-पार्टी मुस्लिम गठबंधन, बाबरी मस्जिद आंदोलन समन्वय समिति का भी गठन किया गया था। ये गठन पूरी तरह से धर्म-केंद्रित थे। 1990 के दशक में गैर-सरकारी संगठन नामक एक नई इकाई जमीनी स्तर पर उभरी जिसने गैर-पार्टी राजनीतिक संरचनाओं की प्रकृति को फिर से परिभाषित किया।
इधर जन आंदोलनों ने अपनी लामबंदी क्षमता खो दी। उनकी विरोध की राजनीति मुद्दा आधारित प्रदर्शन में तब्दील हो गई। दूसरे, इस विचलन ने विहिप जैसे संगठनों को सामाजिक क्षेत्र पर पूरी तरह कब्ज़ा करने में भी मदद की। सामाजिक स्तर पर हिंदुत्व की राजनीति के प्रभुत्व ने भाजपा को समाज के विभिन्न वर्गों से सीधे संवाद करने में मदद की है।
अब बदले परिवेश में यह कहा जा सकता है कि राहुल गांधी शायद एकमात्र विपक्षी नेता हैं जो सामाजिक क्षेत्र के मूल्य को पहचानते हैं। उनकी दो भारत जोड़ो यात्राओं को एक नई शुरुआत के रूप में देखा जाना चाहिए। यह देखना दिलचस्प होगा कि 2024 के चुनाव के नतीजे भविष्य में विरोध राजनीति की रूपरेखा को कैसे आकार देंगे। लेकिन इतना स्पष्ट है कि दो बार भारत की यात्रा कर उन्होंने समाज में इसी गांधीवादी सोच को मजबूत किया है और जनमानस के बीच अपनी अलग छवि बनायी है।
देश की जनता से मिलने और सीधा संवाद करने की वजह से वह सत्तारूढ़ दल के लिए अब एक बड़ी चुनौती बन चुके हैं। भाजपा और उस दल के शीर्ष नेता यानी नरेंद्र मोदी के भाषणों से भी यह साफ हो रहा है कि कभी जिस व्यक्ति को पप्पू बताकर नकारा गया था, वह अब भाजपा को अपने एजेंडे के हिसाब से चला रहा है और राजनीति में बड़ी चुनौती बन चुका है।