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बाद में भाजपा को भी यह सब झेलना होगा

दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल की प्रवर्तन निदेशालय द्वारा गिरफ्तारी भारत के लोकतंत्र और संघवाद की दिशा पर परेशान करने वाले सवाल उठाती है। आम चुनाव से पहले विपक्ष के एक प्रमुख नेता और एक सेवारत मुख्यमंत्री की गिरफ्तारी का राजनीतिक इरादा स्पष्ट है।

इससे पहले झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को भी उस आरोप में गिरफ्तार किया गया है, जिसका कोई सबूत नहीं है। दिल्ली उत्पाद शुल्क नीति मामला, जिसमें श्री केजरीवाल को गिरफ्तार किया गया है, अगस्त 2022 में सीबीआई द्वारा दर्ज किया गया था, जिसके आधार पर ईडी ने अपनी मनी लॉन्ड्रिंग जांच शुरू की थी।

इस बीच यह राज भी सामने आ गया है कि इस मामले में ईडी के सरकारी गवाह ने भाजपा को चंदा दिया है। यानी अगर दिल्ली की शराब नीति से कमाई हुई भी है तो उसका एक हिस्सा भाजपा के बैंक खाते में गया है, यह स्थापित सत्य है। आम आदमी पार्टी के कई अन्य नेता जेल में हैं – फरवरी 2023 से मनीष सिसौदिया, और अक्टूबर 2023 से संजय सिंह।

अगर ईडी के पास भ्रष्टाचार के सबूत थे, तो उसे मामले की सुनवाई युद्ध स्तर पर करनी चाहिए थी। अभियुक्तों को जेल में रखना, जबकि जांचकर्ता अपना खोजी अभियान जारी रखे हुए हैं, कानून द्वारा शासित समाज में अस्वीकार्य होना चाहिए। जब आरोपी सत्तारूढ़ दल के राजनीतिक विरोधी हों, तो गिरफ्तारियों को कानून के चयनात्मक कार्यान्वयन के रूप में देखा जाएगा और लोकतंत्र में जनता के विश्वास को कम किया जाएगा।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने पहले ईडी से सबूतों की एक अटूट श्रृंखला प्रदान करने के लिए कहा था, जिसमें दिखाया गया हो कि अवैध कमाई का पैसा शराब लॉबी से श्री सिसोदिया तक पहुंचा था। कोर्ट ने टिप्पणी की थी कि ईडी की क्षमता किसी आरोपी को अपराध की आय से जोड़ने वाले निर्बाध सबूत को सामने लाने में है।

बाद में, अदालत ने श्री सिसौदिया को जमानत देने से इनकार कर दिया। यह पहली बार नहीं है कि कोई केंद्रीय एजेंसी किसी संवैधानिक पदाधिकारी के पीछे गई है। ईडी द्वारा गिरफ्तारी से पहले हेमंत सोरेन ने झारखंड के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। जैसे हालात हैं, इस देश की लोकतांत्रिक राजनीति को केंद्रीय एजेंसियों द्वारा ठप किया जा सकता है, भले ही न्यायालय और भारत का चुनाव आयोग इस सब को नियमित कानून प्रवर्तन के रूप में मानता रहे।

यह बहाना कि कानून अपना काम कर रहा है, किसी भी समझदार व्यक्ति के लिए विश्वसनीय नहीं होगा। यह कोई संयोग नहीं है कि केंद्रीय एजेंसियां भ्रष्टाचार के आरोप में केवल विपक्षी नेताओं को ही गिरफ्तार कर रही हैं, और यहां तक कि जिन नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं, उन्हें भी भारतीय जनता पार्टी से हाथ मिलाते ही छोड़ दिया जाता है। श्री केजरीवाल एक सर्व-शक्तिशाली एजेंसी के लिए अभियान चलाकर राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त कर गए जो सार्वजनिक जीवन से भ्रष्टाचार को खत्म कर देगी।

उन्होंने और उनके अराजकतावादियों के समूह ने भीड़तंत्र के माध्यम से संवैधानिक रूप से चुनी गई सरकार को चुनौती दी, और एक दशक से भी अधिक समय पहले राजकोष को हुए अनुमानित नुकसान जैसे षड्यंत्र के सिद्धांतों को बढ़ावा दिया। श्री केजरीवाल अब स्वयं उस तर्क में फंस गए हैं जिसे उन्होंने लोकप्रिय बनाया था। लेकिन दो गलतियाँ एक सही नहीं बन जातीं। लेकिन यह स्पष्ट है कि ईडी अथवा दूसरी सरकारी एजेंसियां भाजपा के राजनीतिक एजेंडे के तहत काम कर रही है।

देश की आम जनता को यह बात अच्छी तरह समझ में आ रही है लेकिन अजीब बात है कि देश की अदालतें इस सीधी बात को क्यों नहीं समझ पा रही है। इस  वजह से न्यायपालिका की विश्वसनीयता भी जनता की नजरो में घटती जा रही है। जयप्रकाश आंदोलन को जानने समझने वाले जानते हैं कि जनता को एक सीमा से अधिक दबाने का नतीजा क्या हो सकता है। जब जनता भड़क जाती है तो राजतंत्र और सरकार दोनों ही अचानक से पंगु हो जाते हैं।

डंडे के सहारे तब भी स्थिति को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। इसके अलावा इस किस्म की कार्रवाइयों के बारे में राष्ट्रीय जनता दल के सांसद मनोज झा ने सही आकलन किया है कि दरअसल भाजपा अपने लिए ही परेशानी बढ़ा रही है क्योंकि वह जिस रास्ते से अपने विरोधियों को निपटाना चाहती है, उसके विरोधी भी यह दांव सीख रहे  हैं और बाद में भाजपा के खिलाफ भी यही हथकंडे आजमाये जाएंगे। जिस पीएमएलए कानून का इस तरीके से इस्तेमाल हो रहा है, उसे बनाने वाले पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री पी चिंदावरम भी मान चुके हैं कि कानून का ऐसा भी दुरुपयोग किया जा सकता है, यह उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था।

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