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भारत की वास्तविक आर्थिक स्थिति

आंकड़ो में देश की स्थिति अच्छी है। अब कहा जा रहा है कि हम अर्थव्यवस्था के मामले में ब्रिटेन से भी आगे बढ़ गये हैं। लेकिन जमीनी हकीकत का पता इस बात से चलता है कि अगर किसी देश की अर्थव्यवस्था को उसकी कुल आबादी से भाग दिया जाए तो औसत प्रति व्यक्ति की आय खुलकर सामने आती है। मोदी सरकार आंकड़ों की बाजीगरी के जरिए देश की जनता को जो सुनहरा सपना दिखाना चाहती है, वह रोटी की भूख से बार बार बाधित हो रही है। हाल के दिनों में, खासतौर पर कोविड-19 महामारी के बाद से असमानता के मुद्दे पर गंभीर चर्चा हो रही है। अर्थशास्त्रियों और विश्लेषकों की आम राय यह है कि महामारी के बाद दिख रहे सुधार का संबंध, मुख्य रूप से बड़ी कंपनियों को मिलने वाले मुनाफे से है और वेतन पर निर्भर रहने वाले लोग, खासतौर पर आमदनी के पिरामिड में निचले स्तर पर रहने वाले लोगों को असमान तरीके से नुकसान उठाना पड़ा है।

इस दौरान अर्थव्यवस्था स्पष्ट रूप से संगठित होती दिखी है और श्रम-प्रधान असंगठित क्षेत्र से उत्पादन का दायरा कम होकर बड़ी कंपनियों में बढ़ने लगा है। इसके साक्ष्य विभिन्न क्षेत्रों के प्रदर्शन में भी दिखते हैं। उदाहरण के लिए, लक्जरी कारों और प्रीमियम रियल एस्टेट कारोबार का प्रदर्शन अच्छा है जबकि रोजमर्रा के उपभोग वाले सामान में सुस्ती के रुझान हैं। वित्त मंत्रालय के अर्थशास्त्रियों ने इसी संदर्भ पर गौर करते हुए पिछले हफ्ते प्रकाशित अपने लेखों के संग्रह में इस मुद्दे को शामिल किया है। वैश्विक स्तर पर आर्थिक मुद्दों से जुड़ी चर्चा में असमानता, प्रमुख विषय रहा है क्योंकि कई सालों से अधिकांश देशों में यह समान स्तर पर बना हुआ है।

इस बात पर तवज्जो दी गई है कि विश्व असमानता डेटाबेस के अनुसार पिछले 200 वर्षों में जिन शीर्ष 10 प्रतिशत लोगों के हिस्से में वैश्विक आमदनी जा रही है उसका दायरा 50 से 60 प्रतिशत के बीच रहा है। वहीं, नीचे के स्तर के 50 प्रतिशत लोगों तक पहुंचने वाली आमदनी का हिस्सा 10 प्रतिशत या उससे भी कम रहा है। हालांकि असमानता के लिए भी कई तरह के स्पष्टीकरण दिए गए हैं। उदाहरण के तौर पर अर्थशास्त्री डब्ल्यू आर्थर लुइस के तर्क पर गौर किया जा सकता है जिनका कहना है कि विकास के शुरुआती चरणों में दो तरह की आर्थिक प्रणाली यानी पारंपरिक और आधुनिक औद्योगिक क्षेत्र ने भी असमानता बढ़ाने में अपना योगदान दिया है। इसी तरह, अर्थशास्त्री साइमन कजनेट्स का कहना है कि असमानता एक उलटे यू-आकार के पैटर्न का अनुसरण करती है।

इस तरह औद्योगीकरण बढ़ने के साथ-साथ असमानता बढ़ती है और बाद में यह घटने लगती है। अगर भारतीय संदर्भ में इसे देखें तब एक अध्ययन के अनुसार, वर्ष 1983 और 1993-94 के बीच उपभोग संबंधी असमानता में कमी आई लेकिन 1991 के आर्थिक सुधारों के दौर के बाद के दशक में इसमें वृद्धि देखी गई। हालांकि यह बात आश्चर्यजनक नहीं लगनी चाहिए क्योंकि सुधारों के बाद निजी क्षेत्र की बढ़ती भूमिका और उसके प्रोत्साहन ढांचे के चलते यह वृद्धि देखी गई। चूंकि पिछले एक दशक में भारत में घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण के परिणाम नहीं मिले हैं इसलिए हाल के अध्ययन में अलग-अलग आंकड़ों पर निर्भरता की वजह से विभिन्न निष्कर्ष भी निकले हैं। हालांकि, भारतीय संदर्भ में व्यापक स्तर पर प्रमुख नीतिगत सवाल यह है, क्या सरकार को वृद्धि पर ध्यान देना चाहिए, या संसाधनों के पुनर्वितरण और समानता पर? इस लेख में वृद्धि का पक्ष लेते हुए कहा गया है, ‘भारत जैसे विकासशील देश में जहां विकास की क्षमता और संभावनाएं अधिक हैं और गरीबी कम करने की भी संभावना है वहां फिलहाल आर्थिक विकास को ही तवज्जो देनी चाहिए।

बेशक, भारत में लोगों को गरीबी से बाहर निकालने और उनके जीवन स्तर में सुधार लाने के लिए तेज आर्थिक विकास की जरूरत है। लेकिन विचार करने वाली बात यह है कि जब आबादी का एक बड़ा हिस्सा इसमें भागीदारी नहीं कर पा रहा है, तब क्या यह लंबी अवधि में भी उच्च वृद्धि के स्तर को बरकरार रख सकता है? यह आकलन करना भी सही होगा कि क्या मौजूदा और संभावित वृद्धि दर, इस दायरे को उचित रूप से बढ़ाने के लिए पर्याप्त साबित होगी। एक तरह से यह भारतीय श्रम बाजार की स्थिति वास्तविक चुनौतियों को ही दर्शाती है। भारत में अब तक कृषि क्षेत्र से पर्याप्त लोगों को बाहर नहीं निकाला जा सका है जिससे वृद्धि और आमदनी प्रभावित हो रही है। श्रम बाजार की स्थिति में वांछनीय बदलाव से ही वृद्धि की संभावनाओं में सुधार लाने, गरीबी कम करने और असमानता की समस्या को दूर करने में मदद मिल सकती है। मजदूर और किसान तक जबतक लाभ नकदी के तौर पर नहीं पहुंचे, यह भारतीय बाजार को मजबूती प्रदान नहीं कर सकता। सिर्फ अमीरों की जेब भरने से देश की आर्थिक तरक्की होगी, यह सोच ही गलत है।

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