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लोकतंत्र की राह में रोड़ा बनता राजभवन

पहली बार ऐसा देखा जा रहा है कि जिन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार नहीं है, वहां के काम काज पर दखल के लिए राज्यपालों का इस्तेमाल किया जा रहा है। इस वजह से एक नहीं अनेक मामले उच्चतम न्यायालय तक आ रहे हैं। ऊपर से अदालत के फैसले का भी राजभवनों पर कोई असर होता हुआ नजर नहीं आ रहा है।

ताजा मामला दिल्ली का है, जहां उप राज्यपाल ने मंत्रिमंडल की जांच की सिफारिश को खारिज कर दिया है। दरअसल यह अनुशंसा उनके ही करीबी समझे जाने वाले दिल्ली के मुख्य सचिव के खिलाफ थी, जिसमें उनपर आरोप लगाया गया है कि उन्होंने अपने ही पुत्र को अनुचित लाभ दिलाने का काम किया है।

तरफ तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि राज्य में विश्वविद्यालयों से संबंधित विधेयकों पर सहमति रोकने का रवि का कृत्य संवैधानिक अत्याचार के अलावा कुछ नहीं है। यह विधायिका द्वारा पारित विधेयकों को सहमति देने या अस्वीकार करने की संविधान द्वारा प्रदत्त शक्ति का घोर दुरुपयोग है। सहमति देना राज्य के नाममात्र प्रमुख का एक नियमित कार्य है, और इसे रोकने की असाधारण शक्ति का अनुचित तरीके से प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए।

बल्कि, राजभवन में पदासीन लोगों को इस वीटो का उपयोग शायद ही कभी करना चाहिए, और केवल प्रमुख मामलों में जब बुनियादी संवैधानिक मूल्य दांव पर हों। जिन विधेयकों को श्री रवि ने मंजूरी देने से इनकार कर दिया है, उनमें मुख्य रूप से विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को नियुक्त करने की राज्यपाल की शक्ति को छीनने और इसे राज्य सरकार में निहित करने की मांग की गई है। इन विधेयकों में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे राज्यपाल अस्वीकार कर सकें, कुलाधिपति के रूप में उन्हें प्रदत्त शक्तियों को बरकरार रखने के निहित स्वार्थ को छोड़कर।

राज्यपालों द्वारा उनके पास लंबित विधेयकों को मंजूरी देने में देरी करने पर सुप्रीम कोर्ट की उचित टिप्पणी के बाद विधेयकों की अस्वीकृति एक तीखी प्रतिक्रिया प्रतीत होती है। अपनी ओर से, द्रमुक सरकार ने तुरंत विधानसभा का एक विशेष सत्र बुलाया और उन्हीं विधेयकों को फिर से अपनाया। सवाल उठता है कि क्या यह इस धारणा के तहत था कि यदि उन्हीं विधेयकों पर पुनर्विचार किया गया और सदन द्वारा फिर से पारित किया गया तो राज्यपाल सहमति देने के लिए बाध्य हैं।

इसी तरह पंजाब का भी मामला उठा था, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया है। उससे पहले ही शीर्ष अदालत की संविधान पीठ ने दिल्ली के मामले में यह फैसला सुनाया था कि दिल्ली का असली बॉस वहां की चुनी हुई सरकार है। अब राजभवन और राज्य सरकार के विवाद की वजह से क़ानूनी स्थिति यह है कि ये विधेयक क़ानून बनने में विफल रहे हैं। अपने विधेयकों की अस्वीकृति से व्यथित सदन के लिए संविधान में कोई उपाय नहीं है।

अनुच्छेद 200 का प्रावधान, जो दूसरी बार पारित विधेयकों के लिए राज्यपाल की सहमति को अनिवार्य बनाता है, उन विधेयकों पर लागू नहीं होता है जिनके लिए सहमति रोक ली गई है, एक शब्द जिसका अनिवार्य रूप से अर्थ अस्वीकृत है। यदि सरकार इस स्थिति से अवगत थी और फिर भी उन्हें फिर से अपनाने का साहस कर रही थी, तो संभवतः इसका मतलब एक राजनीतिक संदेश था कि वह अपने विधायी उपायों को आगे बढ़ाने के मामले में पीछे नहीं हटेगी।

उनके ताज़ा पारित होने का प्रभाव यह है कि राज्यपाल उन्हें ताज़ा विधेयक मान सकते हैं। इसका मतलब है कि वह एक बार फिर सहमति रोकने के लिए स्वतंत्र है। एक तरह से, राज्यपाल की कार्रवाई ने संविधान में एक अलोकतांत्रिक और संघीय-विरोधी विशेषता को उजागर करने में मदद की है जो निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा पारित कानून के टुकड़ों को अस्वीकार करने की एक अनियंत्रित शक्ति बनाती है।

राज्यपाल की शक्तियों के संबंध में चल रही कार्यवाही में अपनी टिप्पणियों में, न्यायालय ने इस तथ्य पर ध्यान आकर्षित किया है कि राज्यपाल निर्वाचित नहीं होते हैं। न्यायालय को इस बात की जांच करनी चाहिए कि क्या उस कार्यालय को कानून पर वीटो का अधिकार देना संसदीय लोकतंत्र का उल्लंघन है, जो संविधान की मूल विशेषता है।

पक्षपातपूर्ण शरारत की गुंजाइश को समाप्त करने के लिए एक आधिकारिक घोषणा की आवश्यकता है। झारखंड में भी सरकार को अस्थिर करने की साजिश हुई थी। गनीमत है कि उस वक्त के राज्यपाल के पास आया चुनाव आयोग का पत्र, जिस लिफाफा में था, वह ऐसा चिपका कि आज तक नहीं खुल पाया।

लेकिन यह तय नहीं है कि यह चिपका हुआ लिफाफा बाद में कभी भी नहीं खुल सकता है। बंगाल में भी खास तौर पर अनेक मामलों में राजभवन और राज्य सरकार के बीच खींच तान नियमित बात हो गयी है। इन कृत्यों से लोकतंत्र बाधित हो रहा है यह हर कोई समझ सकता है। देश में लोकतंत्र कायम रहे इसके लिए राजभवन से संचालित हो रहे राजनीतिक एजेंडा को अब रोकने का वक्त आ गया है।

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