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आ बैल मुझे मार है टीवी एंकरों का हश्र

कांग्रेस सहित इंडिया एलायंस ने चौदह टीवी एंकरों के कार्यक्रम का बहिष्कार करने का एलान कर दिया। यह होना था क्योंकि भारत जोड़ो यात्रा के दौरान ही राहुल गांधी ने कुछ टीवी चैनलों के रवैये की खुलकर आलोचना की थी। अब कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेडा द्वारा एलान होने के बाद भाजपा को सबसे अधिक परेशानी है।

दूसरी तरफ दोनों पक्ष यह भूल रहे हैं कि अब भारत में भी हर तथ्य की परख आर्टिफिशियल इंटैलिजेंस से तुरंत हो रही है। इसलिए कौन सा एंकर किस एजेंडे पर काम कर रहा है, यह समझ लेना कठिन नहीं है। कई बार इस आरोप में भी दम लगता है कि कोई और ताकत इन सभी एंकरों को वह विषय और लाइन प्रदान करती है, जिस पर अपने अपने समय में वे एक साथ इस विषय पर चर्चा करने लगते हैं।

इस कोशिश के बीच सोशल मीडिया का विस्तार इतना अधिक हो चुका है कि जिन मुद्दों को वे दबाना चाहते हैं, वे और मजबूती से जनता तक पहुंच रहे हैं। दूसरी तरफ अब आम घरों में खबरों के लिए लोगों ने टीवी चैनल देखना कम कर दिया है। इस बहस में ए आई को समझना जरूरी है। हमारे दैनिक जीवन में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की घुसपैठ ने हर किसी को चर्चा में ला दिया है।

दिलचस्प बात यह है कि चैटजीपीटी के निर्माता सैम ऑल्टमैन को लगता है कि एआई को विनियमित किया जाना चाहिए। जब सोशल मीडिया ने हमारे जीवन में प्रवेश किया, तो इसे सामूहिक सौहार्द्र को बढ़ाने के एक मंच के रूप में देखा गया। कम से कम, डेवलपर्स ने दावा किया था कि यह यही करेगा।

लेकिन सोशल मीडिया ने जिस दुष्ट सरलता को प्रेरित किया, उसके लिए कोई भी तैयार नहीं था। यह एक सामाजिक-राजनीतिक हथियार बन गया है, जो नागरिक को नागरिक के विरुद्ध खड़ा करता है। फर्जी खबरें, छद्म विज्ञान, अंधराष्ट्रवाद के सभी रूप लगातार उत्पन्न होते हैं, देखे जाते हैं, पसंद किए जाते हैं और साझा किए जाते हैं।

जिसे अच्छे के लिए एक शक्ति के रूप में सोचा गया था और हो सकता था, उसे तर्कसंगतता, सहानुभूति और वैज्ञानिक सोच के खिलाफ एक शस्त्रागार में बदल दिया गया है। इस ऑनलाइन माध्यम के दुष्परिणामों ने वास्तविक दुनिया को अभिभूत कर दिया है। चुनाव हार गए हैं; राष्ट्र गृहयुद्ध के करीब आ गये हैं; लोगों को अत्याचार करने के लिए उकसाया गया है।

समाज को सोशल मीडिया के हानिकारक प्रभावों से बचाने की कोशिश में, विडंबना यह है कि सरकारों ने खुद को कानूनी उपकरण सौंप दिए जिनका इस्तेमाल आलोचकों और विरोधियों के खिलाफ किया जा सकता है। इस बात पर बहस जारी है कि क्या ऐसे कानून अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाते हैं।

सोशल मीडिया के कारण पैदा हुई उलझन का कारण समाज का अपनी ही चालाकी और कपटपूर्णता के प्रति अंधा होना हो सकता है। इस पृष्ठभूमि को देखते हुए, क्या किसी को एआई के समर्थन से प्रोत्साहित किया जाना चाहिए? एआई कई व्यवसायों को निरर्थक बना देगा। इसे स्वीकारना चाहिए कि सोशल मीडिया ने हमारी नीचता को बढ़ाया जबकि यह हमारे आधारभूत गुणों को और अधिक निखार सकता है। यह तकनीक समाज के लिए सत्य और असत्य के बीच अंतर करना कठिन बना देगी।

नतीजतन, यह उस विश्वास को खत्म कर देगा जो समाज को एक साथ बांधे रखता है। सोशल मीडिया की प्रसार क्षमता के साथ-साथ एआई की मिथ्या बातें उत्पन्न करने की क्षमता सामाजिक विघटन के लिए एक शक्तिशाली औषधि होगी। हालाँकि, मुद्दा केवल प्रौद्योगिकी के बारे में नहीं है। दूसरी ओर, विज्ञान और प्रौद्योगिकी में प्रगति ने पर्यावरण और परिणामस्वरूप, सार्वजनिक स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाला है।

मनुष्य के अन्य प्रजातियों से भिन्न होने का एक कारण यह है कि सामाजिक संपर्क पर उनके नियम लगातार विकसित हो रहे हैं। दुर्भाग्य से, जब प्रौद्योगिकी के उपयोग पर कानूनों की बात आती है, तो उन्हें प्रौद्योगिकी द्वारा समाज को नुकसान पहुंचाने के बाद ही प्रख्यापित किया जाता है। इसलिए टीवी एंकरों के बॉयकॉट को अभिव्यक्ति पर हमला बताने वालों को आत्म विश्लेषण करना चाहिए कि इन एंकरों ने पत्रकारिता को मिशन से कमिशन तक पहुंचाया है अथवा नहीं।

अब ए आई का इस्तेमाल दूसरे भी सीख गये हैं, इसलिए सच और झूठ के बीच के एजेंडा को समझना और आसान हो गया है। भाजपा आईटी सेल ने जिस सोशल मीडिया के जरिए अपना विस्तार किया था, अब वही सोशल मीडिया भाजपा पर भारी पड़ गया है और टीवी चैनल भी भाजपा तथा मोदी सरकार का सामाजिक बचाव नहीं कर पा रहे हैं। जिन मुद्दों से ध्यान भटकाने की साजिशें होती रही हैं, वे मुद्दे अब और मुखर होकर हमारे सामने आ रहे हैं। गनीमत है कि बहिष्कार वाली सूची में सिर्फ चौदह लोग ही हैं वरना टीवी एंकरों की हरकतों को समझने वाले जानते हैं कि इनमें कई नाम और जुड़ सकते हैं।

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