Breaking News in Hindi

इजरायल से भारत को सबक लेना चाहिए

इज़राइल के दक्षिणपंथी प्रधान मंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने सोमवार को विधायी जीत हासिल की जब उनके गठबंधन ने नेसेट में उनकी न्यायिक ओवरहाल योजना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा पारित कर दिया, लेकिन एक बड़ी कीमत पर। विवादास्पद विधेयक को श्री नेतन्याहू के 64 गठबंधन सांसदों के शून्य के मुकाबले समर्थन से पारित किया गया, जबकि विपक्ष ने वोट का बहिष्कार किया और हजारों ने संसद के बाहर विरोध प्रदर्शन किया।

इजरायल की सरकार के इस फैसले के पीछे विरोधी यह तर्क दे रहे हैं कि इसका असली मकसद अपने खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों की जांच को रोकना है। नेतन्याहू को समर्थन देने वाले कई सांसद इन्हीं आरोपों से घिरे हुए हैं। इसलिए यह मामला भारतीय संदर्भ में महत्वपूर्ण है। देश की शीर्ष अदालत में केंद्र सरकार के खिलाफ कई मामलों की सुनवाई चल रही है। इसके बीच ही भाजपा समर्थकों का एक वर्ग शीर्ष अदालत और खास तौर पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ कुप्रचार में जुट गये हैं।

देश में भी सरकार के खिलाफ बोलने वालों अथवा सरकारी फैसलों का विरोध करने वालों को दंडित होना पड़ रहा है। अब इजरायल को देखें तो दक्षिणपंथी और अति-रूढ़िवादी दलों के उनके गठबंधन का कहना है कि यह कानून सरकार और न्यायपालिका के बीच संतुलन लाने के लिए है, जो सरकार के अनुचित फैसलों की समीक्षा करने की सुप्रीम कोर्ट की क्षमता को छीन लेगा।

इजराइल की राजनीति दक्षिणपंथ की ओर स्थानांतरित हो गई है, जिससे सरकारें, जिनका नेतृत्व अक्सर दक्षिणपंथी या केंद्र-दक्षिणपंथी पार्टियों के नेतृत्व में होता है, जिन्हें सुदूर-दक्षिणपंथी पार्टियों का समर्थन प्राप्त होता है, न्यायपालिका के साथ मतभेद पैदा हो गया है। श्री नेतन्याहू के सहयोगी न्यायिक सुधार के माध्यम से इस विरोधाभास को ठीक करना चाहते हैं।

लेकिन समस्या यह है कि न्यायपालिका, जो सरकार पर एकमात्र शक्तिशाली संवैधानिक नियंत्रण है, को सरकारी नियंत्रण में लाने से इज़राइल की राजनीति में मौजूदा संस्थागत संतुलन बिगड़ सकता है, खासकर जब दूर-दराज़ पार्टियाँ उभार पर हों। इसी के चलते श्रमिकों, पेशेवरों और रिजर्विस्टों (इजरायल की सेना की रीढ़) ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया, जिन्होंने श्री नेतन्याहू पर लोकतंत्र को कमजोर करने की कोशिश करने का आरोप लगाया।

गनीमत है कि वहां की प्रेस का हाल भारत की मुख्य धारा की मीडिया जैसा नहीं है। उनलोगों ने इस फैसले के विरोध में अपने अखबार का पहला पन्ना काला छोड़ दिया है। यानी सांकेतिक तौर पर वह इस फैसले को देश के लिए एक काला अध्याय बताना चाह रहे हैं। सत्तारूढ़ गठबंधन में दूर-दराज़ पार्टियों के लिए, सुप्रीम कोर्ट की शक्तियों को कम करना इज़राइल के परिवर्तन और फिलिस्तीनियों की अधीनता में तेजी लाने का स्पष्ट तरीका है।

इटमार बेन-ग्विर और बेज़ेल स्मोट्रिच जैसे मंत्री कब्जे वाले फिलिस्तीनी क्षेत्रों में अधिक यहूदी बस्तियां चाहते हैं और यहूदी राज्य के वफादार अरब अल्पसंख्यक पर कार्रवाई चाहते हैं। नए कानून के साथ, सरकार के कार्यों को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता है कि वे अनुचित थे।

साथ ही, इस न्यायिक और राजनीतिक संकट को उस बड़े संकट से अलग करके नहीं देखा जा सकता है जिससे इजराइल जूझ रहा है। इज़राइल, जिसे पश्चिम में मध्य पूर्व का एकमात्र लोकतंत्र कहा जाता है, उसके पास अपने नागरिकों और कब्जे वाले और संलग्न क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए दो प्रणालियाँ हैं, वेस्ट बैंक और पूर्वी येरुशलम। न्यायिक ओवरहाल योजना ने इस मिथक को तोड़ दिया है कि फिलिस्तीनियों के क्रूर कब्जे के बावजूद इज़राइल की लोकतांत्रिक व्यवस्था की रक्षा की जाएगी।

यह कोई संयोग नहीं है कि ओवरहाल के सबसे बड़े समर्थक कब्जे के सबसे बड़े रक्षक भी हैं। धुर दक्षिणपंथी इजरायल को एक सत्तावादी धर्मतंत्र में बदलना चाहते हैं, जिसमें घर पर कुछ जांच और संतुलन और कब्जे वाली भूमि में बेलगाम विस्तार शामिल है। लेकिन इसके दबाव ने इज़राइल की ग़लतियों को भी उजागर कर दिया है, जिससे वह अपने सबसे बड़े संकट में फंस गया है।

श्री नेतन्याहू ने भले ही नेसेट के माध्यम से विधेयक को आगे बढ़ाया हो, लेकिन उन्होंने इज़राइल को कमजोर बना दिया है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी इजरायल के इस फैसले को भ्रष्टाचार को संरक्षण देने से जोड़कर देखा जा रहा है। पहले से ही इस बात की चर्चा होती आयी है। अब भारत के संदर्भ में देखें तो यहां भी तमाम केंद्रीय एजेंसियां फिलहाल सिर्फ विरोधी दलों के खिलाफ ही कार्रवाई करने में जुटी है।

दूसरी तरफ विरोधी दलों के जिन नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे, वे भाजपा की वाशिंग मशीन में जाकर पाक साफ बन रहे हैं। इससे और कुछ नहीं तो देश का लोकतंत्र कमजोर हो रहा है। दूसरी तरफ नीचे से ऊपर तक यही संदेश जा रहा है कि भ्रष्टाचार के लिए सिर्फ सत्तारूढ़ दल के साथ होना ही एकमात्र शर्त है। यह कमसे कम भारतीय लोकतंत्र के लिए कोई शुभ संकेत नहीं है। देश को इससे सबक लेना चाहिए।

Leave A Reply

Your email address will not be published.