चुनावदेशमनोरंजनमुख्य समाचारराजनीतिसंपादकीय

तुम्हें याद होगा कभी हम मिले थे

तुम्हें याद होगा कि हमारी पहले भी मुलाकात हो चुकी है। चुनाव करीब आने के बीच ही हर खेमा यही दोहराने लगा है। अब बताइये पटना में मीटिंग होने वाली है। जो एक दूसरे से सीधे मुंह बात नहीं किया करते थे, एक दूसरे से आंख तक नहीं मिलाते थे, अब उन्हें एक साथ बैठकर बात करना पड़ेगा। यह इलेक्शन भी नेताओं को कइसे कइसे मजबूर बना देता है।

अब बताइये कांग्रेस का दिल्ली में राज था तो अपने केजरीवाल जी शीला दीक्षित की सरकार को कोसते कोसते डॉ मनमोहन सिंह की सरकार को भी कोसते रहे। दूसरी तरफ किनारे बैठे भाजपा वाले समझ रहे थे कि लड़े सिपाही और नाम हवलदार का होगा और कांग्रेस को केजरीवाल धक्का देगा तो कुर्सी उनकी हो जाएगी। लेकिन केजरीवाल पढ़ा लिखा आदमी है, दांव पेंच समझ रहा था। मौका पाते ही कुर्सी हथिया ली।

कुर्सी को अइसे पकड़कर बैठा है कि अब राज्य की कौन कहें दिल्ली नगर निगम से भी भाजपा साफ हो गयी। यह तो रही एक तरफ की बात अब दूसरी तरफ से भी देख लें। गुजरात में भाजपा को टक्कर देने लायक हालत थी लेकिन इसी केजरीवाल की पार्टी ने कांग्रेस का वोट भी काट लिया। नतीजा फिर से भाजपा की प्रचंड जीत।

एक लाइन से इन तमाम दलों को कोसने वाले अरविंद केजरीवाल को अब दूसरे दलों की याद इसलिए आने लगी है क्योंकि उनके लोग लगातार जेल के अंदर जा रहे हैं। आबकारी वाले केस में कोई दम हो या ना हो लेकिन मनीष सिसोदिया और सत्येंद्र जैन जेल में तो हैं। ऐसे में उनकी भी मजबूरी है कि कांग्रेस के साथ बैठे क्योंकि कांग्रेस का साथ मिले बिना राज्यसभा में अध्यादेश नहीं रोका जा सकता है।

यह एक खेमा की तैयारी है कि देश की साढ़े चार सौ के करीब सीटों पर सीधा मुकाबला कराया जाए ताकि भाजपा विरोधी वोटों का विभाजन ना हो। सोचने के लिए तो आसान है लेकिन होगा कइसे, किसी को नहीं मालूम। जो सीट छोड़ेगा वह नुकसान की भरपाई कैसे करेगा, यह बड़ा सवाल है।

लेकिन फिर भी अब भाजपा वालों को भी महसूस हो रहा है कि अपना कुनबा भारी करना चाहिए। शायद सभी इलाकों में भाजपा की अपनी ताकत कमजोर है, इस सच का उन्हें पता चल गया है। इसलिए राज्यों के ताकतवर पार्टियों से फिर से तालमेल की बात होने लगी है। अरे ब्रदर इसी को कहते हैं इंडियन पॉलिटिक्स। कभी नाव पर गाड़ी तो कभी गाड़ी पर नाव। यह इंडियन पॉलिटिक्स ऐसा जंगल  है जहां दांव सही लगे तो चूहा भी हाथी को पटक देता है।

इसी बात पर फिल्म सट्टा बाजार का यह गीत फिर से याद आने लगा है। इस गीत को लिखा था गुलशन बाबरा ने और संगीत में ढाला था कल्याणजी आनंद जी ने। इसे हेमंत कुमार और लता मंगेशकर ने अपना स्वर दिया था। गीत के बोल इस तरह हैं।

तुम्हें याद होगा कभी हम मिले थे

तुम्हें याद होगा कभी हम मिले थे

मुहब्बत की राहों में मिल के चले थे

भूला दो मुहब्बत में हम तुम मिले थे

सपना ही समझो के मिल के चले थे …

डूबा हूँ ग़म की गहराइयों में

सहरा हैं यादों का तनहाइयों में

सहरा हैं यादों का तनहाइयों में

सहरा हैं यादों का तनहाइयों में …

कहीं और दिल की दुनिया बसा लो

क़सम है तुम्हें वो क़सम तोड़ डालो

क़सम है तुम्हें वो क़सम तोड़ डालो

क़सम है तुम्हें वो क़सम तोड़ डालो …

नई दिल की दुनिया बसा न सकूँगा

जो भूले हो तुम वो भुला न सकूँगा

जो भूले हो तुम वो भुला न सकूँगा

जो भूले हो तुम वो भुला न सकूँगा …

अगर ज़िंदगी हो अपनी ही बस में

तुम्हारी क़सम हम न भूलें वो क़समें

तुम्हारी क़सम हम न भूलें वो क़समें

तुम्हारी क़सम हम न भूलें वो क़समें

खैर इससे अलग हटकर मेरी चिंता उनलोगों को लेकर है जो मीडिया में हैं। इतने लंबे समय तक केंद्र सरकार के तारीफों के पुल बांधने वाले अगर सरकार बदली तो क्या करेंगे और कहां होंगे, यह चिंता का विषय है। भारतीय राजनीति में कोई भी राजा रामचंद्र नहीं है कि माफ कर देगा। जो जैसा बोया है, वैसा ही काटेगा।

इसलिए उनके भविष्य की चिंता अब सताने लगी है क्योंकि माहौल कुछ ठीक नहीं लग रहे हैं। साथ ही चिंता उन अधिकारियों की भी हो रही है, जिन्होंने सरकार के इशारे पर सारा गुड़ गोबर किया है और रायता फैला रखा है। कल अगर सरकार बदल गयी तो इस रायते का क्या होगा और रायता बनाने वाले  कहां होंगे, यह देखने वाली बात होगी।

इसके बीच ही पेगासूस और राफेल की खरीद संबंधी जानकारी छिपाने वाले अफसर निजाम बदलने के बाद कैसे बच पायेंगे, यह लाख नहीं करोड़ टके का सवाल है। उदाहरण भी मौजूद है कि गाय, कोयला, बालू तस्करी की सीबीआई और ईडी जांच के साथ साथ जांच एजेंसियां सृजन घोटाले पर कुछ क्यों नहीं कर रही है, यह सवाल तो आज भी है और कल भी रहेगा।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button