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दिल्ली के लिए अध्यादेश राजकार्य या राजनीति

क्या आम आदमी पार्टी की तेजी से बढ़ती लोकप्रियता और उनके काम करने के तरीके से भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेता नरेंद्र मोदी को परेशान कर दिया है। यह सवाल इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि एक चुनी हुई सरकार को अपने अफसरों का तबादला करने का अधिकार नहीं देने के लिए ही नया अध्यादेश लाया गया है।

यह अलग बात है कि इस एक घटना ने फिर से विपक्ष को एकजुट होने का मौका दे दिया है। 19 मई, 2023 को, भारत के राष्ट्रपति ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) अध्यादेश, 2023 (अध्यादेश) को प्रख्यापित करने के लिए संसद के अवकाश की अवधि के दौरान, संविधान के अनुच्छेद 123 के तहत विधायी शक्ति का प्रयोग किया।

अध्यादेश भारत के सर्वोच्च न्यायालय के एक संविधान पीठ के फैसले को नकारता है, जो 11 मई को सुनाया गया था। यहां दो मुद्दे हैं जिनके विश्लेषण की आवश्यकता है: पहला, न्यायालय के फैसले का दायरा। दूसरा, अध्यादेश की संवैधानिकता।

एनसीटीडी की कार्यकारी शक्ति इसकी विधायी शक्ति के साथ सह-व्यापक है, अर्थात यह उन सभी मामलों तक विस्तारित होगी जिनके संबंध में इसे कानून बनाने की शक्ति है; भारत संघ के पास सूची II में केवल तीन प्रविष्टियों पर कार्यकारी शक्ति है, जिस पर एनसीटीडी के पास विधायी क्षमता नहीं है।

नतीजतन, सेवाओं पर कार्यकारी शक्ति का प्रयोग विशेष रूप से एनसीटीडी की सरकार द्वारा किया जा सकता है। न्यायालय की यह व्याख्या अनुच्छेद 239एए (3)(ए) के शब्दों के अनुरूप है। लेकिन, 19 मई को एक अध्यादेश की घोषणा में अनुच्छेद 123 के तहत राष्ट्रपति की असाधारण विधायी शक्ति को ट्रिगर करके, अनुच्छेद 74 के तहत अपने मंत्रिपरिषद के माध्यम से कार्य करते हुए, भारत संघ द्वारा इस व्याख्या को नकार दिया गया था।

यह संविधान के अनुच्छेद 239एए(3)(ए) में संशोधन किए बिना नहीं किया जा सकता था। अनुच्छेद 239एए(3)(बी) के तहत संसद को प्रदत्त शक्ति नए कानून बनाने के लिए है – संविधान के अनुच्छेद 239एए(3)(ए) में संशोधन करने के लिए नहीं। इसी तरह, अनुच्छेद 239एए (7)(ए) के तहत संसद को प्रदत्त शक्ति अनुच्छेद 239एए के विभिन्न खंडों में निहित प्रावधानों को प्रभावी करने या पूरक करने के लिए और सभी प्रासंगिक या परिणामी मामलों के लिए कानून बनाने के लिए है।

जब सर्वोच्च न्यायालय की एक संविधान पीठ (पांच न्यायाधीश) कानून की घोषणा/व्याख्या करती है तो सवाल यह है कि क्या बिना संवैधानिक संशोधन के अनुच्छेद 123 द्वारा अनुच्छेद 141 और 144 को नकारा जा सकता था? संविधान और कानून कहता है कि यदि अध्यादेश को चुनौती दी जाती है, तो भारत संघ के दिल्ली में सेवाओं की शक्ति हथियाने के लिए किसी भी मार्ग से सफल होने की संभावना नहीं है।

लेकिन यही से मूल सवाल पर लौटते हैं कि फिर दिल्ली में पदस्थापित अधिकारियों को अपने पाले में रखने की जरूरत भाजपा सरकार या यूं कहें कि नरेंद्र मोदी को क्यों पड़ रही है। इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता है स्कूली शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में देश की सबसे नई राष्ट्रीय पार्टी ने एक लंबी लकीर खींची है।

इसी उपलब्धि के  बल पर वह पंजाब में भी सरकार बना चुके हैं तथा गुजरात में उनकी पैठ हो चुकी है। अब हरियाणा और उत्तराखंड जैसे राज्यो में भाजपा पर दबाव अधिक है क्योंकि वहां के लोगों का दिल्ली नियमित आना जाना होता है। उत्तरप्रदेश में भी भाजपा को आम आदमी पार्टी से नई चुनौती मिलने लगी है।

ऐसी स्थिति में दिल्ली नगर निगम तक का चुनाव भाजपा के खिलाफ जाना यह साबित करता है कि दिल्ली की जनता भाजपा के काम काज से प्रसन्न नहीं है, भले ही कुछ लोग इसे दिल्ली की जनता की मुफ्तखोरी की आदत करार दें। लेकिन इसके जबाव में आम आदमी पार्टी ने जो उत्तर दिया है कि यही मुफ्तखोरी को निर्वाचित जन प्रतिनिधि भी करते हैं तो जनता को अपने ही पैसे से अगर यह फायदा मिल रहा है तो हर्ज क्या है।

इसलिए साफ है कि दिल्ली के प्रशासन को अपने चंगुल में रखने के लिए ही भाजपा की तरफ से सारी जद्दोजहद किया जा रहा है। वैसे भी नगर निगम का चुनाव समाप्त होने के बाद से ही दिल्ली नगर निगम के माध्यम से हुए गोरखधंधों का खुलासा होने लगा था। अब ऐसे में भाजपा के पास एकमात्र विकल्प बचा है कि तमाम अधिकारियों को वे अपने कब्जे में रखें।

वैसे यह भी स्पष्ट हो गया है कि कई अधिकारी पहले से ही दरअसल भाजपा के लिए ही काम कर रहे थे। जिनका काम भी फाइलों पर कुंडली मारकर बैठ जाना था। अब बदली हुई परिस्थितियों में शायद अधिकारियों के एक वर्ग को भी राजनीति के आसमान पर बदलाव के बादल नजर आने लगे होंगे। इसलिए यह सवाल प्रासंगिक है कि आखिर जनता के जनादेश को दरकिनार कर अफसरों के जरिए भाजपा किन बातों पर पर्दा डालना चाहती है या फिर दिल्ली में हो रहे अच्छे कार्यों को रोकना क्यों चाहती है।

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