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दुश्मन का दुश्मन मेरा दोस्त की राजनीति

दुश्मन का दुश्मन मेरा दोस्त, एक प्रचलित कहावत पुराने समय से चली आ रही है। भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी के कद्दावर चेहरे ने विरोधी दलों को इसी नीति पर चलने पर मजबूर कर दिया है। सभी दलों का आरोप है कि केंद्र सरकार अब केंद्रीय एजेंसियों के सहारे उनका दमन करना चाहती है। इस बात में सच्चाई कितनी है, इसे तय करना अदालत का काम है।

लेकिन आम आदमी पार्टी के दो मंत्री जेलों में बंद हैं। इसी तरह राहुल गांधी भी अपनी लोकसभा की सदस्यता गवां चुके हैं। कर्नाटक में नई सरकार के गठन के मौके पर ही फिर से विरोधी एकता को लेकर आगे बढ़ने की कांग्रेस की मंशा साफ हो गयी है। अब गाड़ी यहां आ पहुंची है, जहां कांग्रेस ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी को अध्यादेश के खिलाफ समर्थन देना स्वीकार कर लिया है।

जिस विपक्षी एकता का शोर पिछले लम्बे अर्से से सुनाई पड़ रहा है, उसके परवान चढ़ने का समय भी अब नजदीक आता दिखाई पड़ रहा है। सवाल सिर्फ एक ऐसे फार्मूले का है जिस पर सभी दलों की स्वीकृति की मुहर लग सके। दरअसल कई भाजपा विरोधी दल यह मानते हैं कि उनके अपने प्रभाव क्षेत्र में कांग्रेस ने ही उनकी ताकत को कम करने की पुरजोर कोशिश की है।

वे भाजपा विरोधी मंच के नाम पर अपनी जमीन छोड़ना नहीं चाहते हैं। कर्नाटक के मंच पर पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी नहीं थी और भारत तेलंगाना समिति के नेता के. चन्द्रशेखर राव नहीं थे, उत्तर प्रदेश समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव नहीं थे और दिल्ली के मुख्यमन्त्री व आम आदमी पार्टी के नेता श्री अरविन्द केजरीवाल नहीं थे।

इनमें से चन्द्रशेखर राव व केजरीवाल को निमन्त्रण ही नहीं भेजा गया था। साथ ही बीजू जनता दल के ओडिशा के मुख्यमन्त्री नवीन पटनायक व आन्ध्र प्रदेश वाई.एस.आर. कांग्रेस के नेता जगन मोहन रेड्डी व उत्तर प्रदेश बहुजन समाज पार्टी की सर्वेसर्वा सुश्री मायावती भी समारोह भी नहीं थे।

मोटे तौर पर देखा जाये तो ये ऐसे दल हैं जो पिछले नौ सालों से केन्द्र में सत्तारूढ़ मोदी सरकार की मुसीबत के समय संसद में मदद करते रहे हैं। हालांकि आम आदमी पार्टी के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है और पिछले कई साल से उसने संसद में भाजपा के विरुद्ध सख्त रुख अपनाया हुआ है।

अतः सामान्य रूप से यह कहा जाता है कि बैंगलुरू में जिस-जिस विपक्षी दल के नेता सिद्धारमैया सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में शरीक हुए वे 2024 के यूपीए की संभावित पार्टियां हैं। ये सब दल मिलकर भाजपा के खिलाफ लोकसभा चुनाव लड़ सकते हैं। इन सभी दलों का मूल आधार किसी न किसी रूप में धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्त के चारों तरफ घूमता रहा है।

दूसरी तरफ एक दूसरी समानता यह भी है कि यह सभी दल इनदिनों केंद्रीय एजेंसियों का कहर भी झेल रहे हैं। लगभग 21 वर्षों से भाजपा के सहयोगी रहे नीतीश बाबू के जनता दल (यू) का भी इस सिद्धांत में अटूट विश्वास रहा है और लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल तो ऐलानिया तौर पर धर्मनिरपेक्षता को अपने बुरे वक्तों में भी इस सिद्धान्त को अपनी पार्टी का पहला वाक्य कहती रही है।

ममता बनर्जी जैसी नेता का इस समारोह में शामिल न होना यह बताता है कि उनकी वरीयता में कुछ और भी शामिल है। जहां तक मायावती का सवाल है तो उनकी ताकत अब लगभग समाप्ति की तरफ है और उनका लक्ष्य स्वयं को पुराने राजनीतिक कर्मकांडों से अपने को सुरक्षित बचाये रखने का है।

समारोह में उत्तर प्रदेश लोकदल के नेता जयन्त चौधरी का शामिल होना बताता है कि लोकसभा चुनावों में उनकी रुची कांग्रेस के सहयोग से अपने मूल जनाधार को मजबूती देने की है। यह जनाधार पश्चिमी व मध्य उत्तर प्रदेश में ही अब बचा है। अपने दादा स्व. चौधरी चरण सिंह की विरासत को बचाने के लिए उनका धर्मनिरपेक्ष ताकतों के साथ दिखना जरूरी है।

मगर अखिलेश यादव व के. चन्द्रशेखर राव की कहानी दूसरी है, ये शुरू में गैर भाजपा व गैर कांग्रेस के समकक्ष तीसरा मोर्चा बनाने की बातें किया करते थे मगर कर्नाटक में कांग्रेस की प्रचंड जीत से इनके फिलहाल होश उड़े हुए हैं।

वैसे एक मजबूत मंच बनने में अभी और समय बाकी माना जा रहा है क्योंकि दिसम्बर महीने तक चार प्रमुख राज्यों में चुनाव होने हैं जिनमें  केवल कांग्रेस पार्टी की ही प्रमुख भूमिका रहेगी और यहां तक रहेगी कि तेलंगाना में उसे भारत तेलंगाना समिति से ही दो-दो हाथ करने होंगे। मगर लोकतन्त्र की मजबूती के लिए ऐसा होना जरूरी भी होता है क्योंकि दिसम्बर महीने तक विधानसभा चुनाव होंगे और अगले साल अप्रैल महीने में लोकसभा के राष्ट्रीय चुनाव होंगे। तब तक कौन अंततः कहां होगा, इसका आकलन करना अभी जल्दबाजी होगी क्योंकि चार राज्यों में अभी विधानसभा चुनाव होने हैं।

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