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कर्नाटक में राजस्थान से सीख ले कांग्रेस

कर्नाटक में मुख्यमंत्री कौन की दावेदारी अब सामने आ गयी है। इसे सुलझाना उतना आसान भी नहीं है क्योंकि इस मुख्यमंत्री की कुर्सी के दो दावेदार सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार के अपने अपने दावे हैं। वैसे इसके बीच ही कांग्रेस को राजस्थान की हालत पर गौर करना चाहिए, जहां चुनाव होने के पहले ही ऐसी स्थिति बन चुकी है कि पार्टी की जान आफत में नजर आ रही है।

इसलिए राजस्थान में काफी समय से जो विवाद चला आ रहा है, उसकी पुनरावृत्ति कर्नाटक में ना हो, इस पर कांग्रेस नेतृत्व को ध्यान देना ही होगा। वरना जनता के बीच ऐसी गुटबाजी से जो संदेश जाता है, वह कांग्रेस की सेहत के लिए अच्छा तो कतई नहीं है। कांग्रेस नेता सचिन पायलट एक बार फिर राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार के खिलाफ झंडा बुलंद करने की राह पर हैं।

उन्होंने घोषणा कर दी है कि अगर पिछली सरकार के कार्यकाल में हुए कथित भ्रष्टाचार के मामलों में कदम नहीं उठाए गए तो वह राज्य सरकार के खिलाफ एक दिन का अनशन करेंगे। पायलट ने इस बार मुद्दे चुनने और उसे उठाने का तरीका तय करने में काफी सावधानी बरती है।

उनका कहना है कि पिछले चुनावों से पहले उनके साथ-साथ मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी लोगों से वादा किया था कि अगर वे सत्ता में आए तो वसुंधरा राजे सरकार के दौरान हुए कथित घोटालों की जांच करवाएंगे। चूंकि अब चुनाव में ज्यादा समय नहीं रह गया है, इसलिए कांग्रेस सरकार को अपना वादा पूरा करना चाहिए ताकि चुनावों के दौरान लोगों के बीच जाने पर उसे असुविधाजनक सवालों का सामना न करना पड़े।

मगर इन औपचारिक बयानों के पीछे की सचाई यह है कि पायलट मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की भाजपा नेता और पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया के बीच की राजनीतिक नजदीकी से वाकिफ हैं। समझा जाता है कि पिछली बार गहलोत सरकार गिराने की पायलट की कोशिश नाकाम करने में वसुंधरा की अघोषित मदद का महत्वपूर्ण हाथ था।

पायलट अच्छी तरह जानते हैं कि गहलोत, वसुंधरा को नाराज नहीं करना चाहेंगे। शायद इसीलिए उन्होंने वसुंधरा सरकार के दौरान हुए कथित घोटालों की जांच को मुद्दा बनाया है। मगर गहलोत और पायलट की इस लड़ाई ने एक बार फिर कांग्रेस नेतृत्व का सिरदर्द बढ़ा दिया है। कहां तो पार्टी अपना पूरा फोकस कर्नाटक विधानसभा चुनावों पर बनाए रखना चाहती थी और कहां राजस्थान में असमय ही यह बखेड़ा खड़ा हो गया।

वैसे, पायलट की गांधी परिवार से करीबी जगजाहिर है। कुछ दिनों पहले कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के समय मुख्यमंत्री पद न छोड़ने की अशोक गहलोत की जिद ने आलाकमान की किरकिरी भी कराई थी। मगर राजस्थान में कांग्रेस विधायकों के बीच गहलोत की मजबूत पैठ के पुख्ता सबूत मिलते रहे हैं। संभवत: यही कारण है कि पार्टी नेतृत्व उन्हें डिस्टर्ब करने के मूड में नहीं लग रही।

जयराम रमेश और प्रदेश कांग्रेस प्रभारी रंधावा के अशोक गहलोत के समर्थन में आए बयान भी यही संकेत दे रहे हैं। दूसरी तरफ, पायलट का रुख भी बताता है कि वह अब इंतजार करते-करते थक गए हैं। देखने वाली बात यह होगी कि अपनी मांग पर जोर देने के क्रम में पायलट कितने कदम आगे बढ़ाते हैं। क्या वह पार्टी की सीमा भी पार कर लेंगे या पार्टी के अंदर से ही नेतृत्व पर दबाव बनाते रहेंगे।

यह साफ होने में थोड़ा वक्त लगेगा, लेकिन इतना तय है कि समय रहते किसी तरह सुलझाई न जा सकी तो दोनों नेताओं की यह आपसी लड़ाई अगले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को काफी कमजोर करेगी। कांग्रेस नेतृत्व इस स्थिति से अच्छी तरह वाकिफ है क्योंकि जब विवाद चरम पर था तो उसे सुलझाने जो प्रतिनिधिमंडल वहां गया था, उसमें खुद वर्तमान कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडगे शामिल थे।

दूसरी तरफ इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि कांग्रेस की ऐसी स्थिति कई अन्य राज्यों में भी है। इनमें छत्तीसगढ़ का विवाद भी जगजाहिर है। ऐसे में अशोक गहलोत वनाम सचिन पायलट की आग दूसरे राज्यों तक ना पहुंचे, इसका समाधान खोजना कांग्रेस नेतृत्व का काम है। वरना कांग्रेस को पिछले कई चुनावों में इसी गुटबाजी की वजह से नुकसान उठाना पड़ा है।

दरअसल गुटबाजी जगजाहिर होने की वजह से आम मतदाताओं का मन भी वैसे दल से दूर हट जाता है जो आपस में ही उलझे रहते हैं। भाजपा इस लिहाज से अभी बेहतर स्थिति में इसलिए है क्योंकि वहां नरेंद्र मोदी ही अंतिम निर्णायक हैं। लेकिन अब कर्नाटक के चुनाव परिणाम के बाद वह स्थिति रहेगी या बदल जाएगी, यह देखने वाली बात होगी।

इसलिए अगर कांग्रेस को भाजपा विरोधी मोर्चा का अगुवा बनना है तो उसे सबसे पहले अपने घर को ठीक करना होगा। पार्टी के अंदर गुटबाजी भी पार्टी के नेताओं की देन है। लिहाजा इस बीमारी को ठीक करना कोई आसान काम नहीं होगा। देखना है कि कर्नाटक की जीत से उत्साहित कांग्रेस इस चुनौती से कैसे निपटती है।

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