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मणिपुर को दूसरा पंजाब मत बनाइये

मणिपुर राज्य अशांत हैं और वहां की राजनीति ने कुछ ऐसी विभाजन रेखा खींच दी है कि अब दोनों वर्ग एक दूसरे के साथ ही रहना नहीं चाहते। राज्य की ब्यूरोक्रेसी तक में यह आग फैल चुकी है। दरअसल जिस समय इस हिंसा को और अधिक भड़कने से तत्काल रोका जाना था उस समय नरेंद्र मोदी और अमित शाह की प्राथमिकता कर्नाटक का विधानसभा चुनाव था।

इसी वजह से इस अत्यंत संवेदनशील मामले की अनदेखी ने वहां हिंसा को और भड़कने का मौका दे दिया। इससे पूरे भारत को यह जानकारी मिली कि दरअसल पूर्वोत्तर की जातिगत राजनीति बहुत ही संवेदनशील है। इसी वजह से सिर्फ मणिपुर ही नहीं बल्कि पूरे पूर्वोत्तर भारत की ऐसी समस्याओँ को निपटाने में सावधानी की जरूरत है।

हिंसा की ताजा घटनाओं को मणिपुर हाईकोर्ट के उस हालिया फैसले के बाद बने हालात से जोड़ा जा रहा है, जिसमें राज्य सरकार को बहुसंख्यक मैतेई समुदाय के लिए एसटी दर्जे की सिफारिश केंद्र के पास भेजने का निर्देश दिया गया था।

इसी निर्देश के खिलाफ ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन मणिपुर ने आदिवासी एकजुटता मार्च का आयोजन किया था, जिस दौरान हिंसा भड़क उठी। हालांकि, चाहे हाईकोर्ट का निर्देश हो या आदिवासी छात्रों का मोर्चा, इनकी तात्कालिक भूमिका भले हिंसा भड़कने में रही हो, प्रदेश में जातीय तनाव के हालात लंबे समय से बने रहे हैं।

गैर-आदिवासी मैतेई समुदाय हालांकि राज्य की कुल आबादी का करीब 65 फीसदी है, लेकिन यह इंफाल के आसपास घाटी में ही केंद्रित है। क्षेत्रफल के लिहाज से इस समुदाय के पास राज्य का बमुश्किल 10 फीसदी भूभाग ही है। बाकी 90 फीसदी इलाकों में 35 फीसदी आदिवासी समुदायों के लोग फैले हुए हैं।

ऐसे में जहां मैतेई समुदाय अपने लिए एसटी दर्जा जरूरी मानता है, वहीं आदिवासी समुदायों को लगता है कि उसे यह दर्जा मिल गया तो उनके अधिकार प्रभावित होंगे। इस सामाजिक विभेद का तत्व वहां पहले से ही मौजूद था लेकिन वह किन्हीं कारणों से अंदर ही अंदर सुलग रहा था, इस बात को मान लेना होगा।

याद करें कि अशांत पंजाब के मुद्दों की अनदेखी करने की वजह से कितनी परेशानी हुई थी और वहां की हिंसा में कितने लोग मारे गये थे। अब मणिपुर में तनाव बढ़ाने वाला एक अन्य नया कारक हैं म्यांमार से आने वाले शरणार्थी। फरवरी 2021 में वहां हुए सैन्य तख्तापलट के बाद इन शरणार्थियों की संख्या में खासी बढ़ोतरी हुई है। खास बात यह कि ये शरणार्थी ज्यादातर म्यांमार के चिन प्रांत के होते हैं जिनकी मणिपुर के कुकी आदिवासियों से रिश्तेदारी होती है।

इससे प्रदेश का जातीय संतुलन बिगड़ने का खतरा बढ़ जाता है। ऐसे में प्रदेश में शांति व्यवस्था सुनिश्चित करने के क्रम में दो बातों का खास तौर पर ध्यान रखने की जरूरत है। एक तो यह कि पड़ोसी देश म्यांमार में बनते हालात का मणिपुर जैसे राज्यों की स्थितियों पर सीधा प्रभाव पड़ता है।

इसलिए सरकार को म्यांमार के सैन्य शासन से बातचीत कर उसे गृहयुद्ध रोकने और अपनी शरणार्थी प्रबंधन व्यवस्था कायम करने के लिए मनाने के प्रयासों पर विशेष ध्यान देना होगा।दूसरी बात यह कि दंगाइयों को देखते ही गोली मारने और पांच दिनों के लिए इंटरनेट सेवा स्थगित करने जैसे कदम तात्कालिक तौर पर अनिवार्य भले लगें, नॉर्थ ईस्ट की संवेदनशीलता को देखते हुए वहां ऐसी सख्ती दीर्घकालिक नजरिए से नुकसानदायक हो सकती है।

उस क्षेत्र की आर्थिक संभावनाओं का फायदा लिए जाने के लिए जरूरी है कि वहां सामान्य स्थिति बहाल रखी जाए। जातीय तनाव से उपजी समस्याओं का स्थायी हल भी आर्थिक विकास की तेज रफ्तार में ही छुपा है। सरकार को इसी पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है।

यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वहां के मैतेई को छोड़कर शेष समुदायों के बीच यह धारणा फैलायी गयी है कि इस राज्य में उनके हितों का ध्यान शायद नहीं रखा जाएगा। इसी वजह से वहां की सरकार के खिलाफ दस विधायकों ने सीधे केंद्रीय गृह मंत्री से अपनी बात कह दी है।

इस  बात की गंभीरता को पूरे देश को समझना होगा कि जब निर्वाचित विधायक ही यह कह रहे हैं कि इस राज्य सरकार के अधीन अन्य जनजातियों का कल्याण संभव नहीं है और वह आबादी इस सरकार पर भरोसा खो चुकी है, ऐसे में जख्म कितने गहरे हैं, इसे महसूस करने की आवश्यकता है।

मणिपुर में उभरा यह सामाजिक विभेद एक दिन की उपज नहीं होगी। सिर्फ अत्यधिक हिंसा की वजह से पूरे देश को इसकी जानकारी पहली बार मिली है। पहाड़ी इलाकों में जो जनजाति बसती है, वे अगर खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं तो यह देश के लिए चिंता का विषय है। दरअसल भौगोलिक कारणों से भी मणिपुर के हालात को हम सामान्य नजरों से नहीं देख सकते। अब वहां दोनों वर्गों के बीच भरोसा कायम करने के लिए पूरे देश को कोशिश करनी चाहिए ताकि वहां के हालात भी पंजाब जैसे ना बन जाएं।

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