कबके बिछड़े थे सवाल है तो उत्तर है सीधा सा कि किसान आंदोलन से मतभेद नहीं मनभेद हो गये थे। वैसे जो अपने सत्यपाल मलिक ने पहले ही जम्मू कश्मीर में राज्यपाल रहते हुए राम माधव पर निशाना साध लिया था। अब जाकर वह पलीता जो वह लगा आये थे, बम तक पहुंचा तो बम फट गया।
कर्नाटक चुनाव में जगदीश शेट्टार ने जो आरोप मढ़ दिये, उसका क्या असर होगा, यह तो चुनाव परिणाम बतायेगा लेकिन पहली बार यह देखने में आ रहा है कि लिंगायत समुदाय की ताकतवर एकजुटता भी भाजपा और कांग्रेस के बीच बंट रही है। बेचारे येदियुरप्पा भी चुनावी पॉलिटिक्स से क्या रिटायर होने की बात कह गये, दूसरों को मौका मिल गया। समीकरण तो यही बताते हैं कि अगर भाजपा दोबारा सत्ता में आयी तो लिंगायत समुदाय का कोई ऐसा ताकतवर नेता नहीं होगा जो सीएम की कुर्सी का दावा कर सके।
यह कोई एक परेशानी तो नहीं है। राहुल गांधी भी अजीब किस्म के इंसान है। पहले लोअर कोर्ट, फिर सेशस कोर्ट और अब हाई कोर्ट पहुंच गये। दरअसल इसके जरिए जो संदेश पूरे देश को पहुंच रहा है, वह कोई बहुत अच्छी या सुखद स्थिति तो नहीं है। अपने मोदी जी की लोकप्रियता का ग्राफ पहले से नीचे आया है क्योंकि वह मौन है।
अडाणी कांड के बाद से उनका असली मुद्दों पर चुप रहना ही भाजपा के लिए भारी पड़ रहा है। दरअसल भाजपा वाले भी करें तो क्या करें। मोदी जी का राजनीतिक कद ही उनलोगों ने मिलकर इतना बढा दिया था कि अब उनके बगैर काम नहीं चलता। दूसरा कोई बचा नहीं तो स्थिति को संभाल सके। जो संभाल सकते थे, वे भी मौका देखकर चुप्पी साधे हुए हैं क्योंकि उन्हें पता है कि घोड़ा के ऊपर से घास नहीं खाना चाहिए, दुलत्ती पड़ने का डेंजर है।
रही बात सुप्रीम कोर्ट की तो वह तो मोदी सरकार के लिए वाकई सरदर्द बनता जा रहा है। खुद मुख्य न्यायाधीश के तेवर ठीक नहीं लागे हैं। वह भी धीरे धीरे अपने फैसलों से वह बड़ी लकीर खींच रहे हैं, जो शायद आने वाले दिनों में एक इतिहास बन जाएगा। बेचारे खेल मंत्री अनुराग ठाकुर दो पाटों के बीच फंसे हैं। उनके बचाव में आयी पीटी उषा को भी पहलवानों में पटकी देद दी। अब दोनों क्या करें। कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष के पास अपने इलाके की आधा दर्जन से अधिक सीटों की चाभी है। दूसरी तरफ पहलवानों ने जंतर मंतर पर बैठकर सरकार की ऐसी तैसी कर दी है।
इसी बात पर एक पुरानी हिन्दी फिल्म का गीत याद आने लगा है। फिल्म लावारिश वर्ष 1981 में बनी थी। अमिताभ बच्चन और जीनत अमान इस फिल्म में मुख्य भूमिका में थे। इस गीत को संगीत में ढाला था कल्याणजी आनन्द जी की जोड़ी ने और उसे स्वर दिया था आशा भोंसले और किशोर कुमार ने। गीत के बोल कुछ इस तरह हैं।
कबके बिछड़े हुए हम आज कहाँ आ के मिले
जैसे शम्मा से कहीं लौ ये झिलमिला के मिले
कबके बिछड़े हुए हम आज कहाँ आ के मिले
जैसे सावन, जैसे सावन, जैसे सावनसे कहीं प्यासी घटा आ के मिले
कबके बिछड़े हुए हम आज कहाँ आ के मिले
बाद मुद्दत के रात महकी है
दिल धड़कता है साँस बहकी है
प्यार छलका है प्यासी आँखों से
सुर्ख़ होंठों पे आग दहकी है
ओ महकी हवाओं में बहकी फ़िज़ाओं में दो प्यासे दिल यूँ मिले
ओ महकी हवाओं में बहकी फ़िज़ाओं में दो प्यासे दिल यूँ मिले
जैसे मयकश, जैसे मयकश, जैसे मयकश कोई साक़ी से डगमगा के मिले
कबके बिछड़े हुए हम आज कहाँ आ के मिले
कबके बिछड़े हुए हम आज कहाँ आ के मिले
कबके बिछड़े हुए हम आज कहाँ आ के मिले
दूर शहनाई गीत गाती है
दिल के तारों को छेड़ जाती है
दिल के तारों को छेड़ जाती है
यूँ सपनों के फूल यहाँ खिलते हैं
यूँ दुआ दिल की रंग लाती है
यूँ दुआ दिल की रंग लाती है
बरसों के बेगाने उल्फ़त के दीवाने अनजाने ऐसे मिले
जैसे मनचाही, जैसे मनचाही, जैसे मनचाही दुआ बरसों आजमा के मिले
कबके बिछड़े हुए हम आज कहाँ आ के मिले
जैसे सावन, जैसे सावन, जैसे सावनसे कहीं प्यासी घटा आ के मिले
कबके बिछड़े हुए हम आज कहाँ आ के मिले
चलते चलते अपने नीतीश भइया का दांव भी देख लें, जो असंभव लग रहा था, वह धीरे धीरे संभव नजर आने लगा है। भाजपा विरोधी खेमा चुनावी तैयार कर पायेगा या नहीं यह पक्का नहीं है। फिर भी नीतीश कुमार ने हिंदी पट्टी में टेंशन लायक माहौल जरूर बना दिया है। ऊपर से सुना है कि किडनी ट्रांसप्लांट कराने के बाद लालू जी भी पटना लौटे हैं तो बिहार में कुछ और खेला होबे।
झारखंड की बात करें तो एक तरफ ईडी की छापामारी और दूसरी तरफ वीडियो चैट के बीच जनता फंसी है। दोनों ही जनता के मुद्दे नहीं हैं पर प्रचार इतना है कि न चाहते हुए भी ध्यान देना पड़ता है। इसलिए तेल देखिये और तेल की धार देखिये।