एक अमेरिकी बैंक फिर से दीवालिया हो गया। ऐसा क्यों हुआ, यह अलग बहस का विषय है लेकिन आज के दौर में दुनिया के किसी भी बैंक का ऐसा हाल दुनिया के दूसरे देशों पर भी अपना असर डाल ही देता है। सिलिकन वैली बैंक (एसवीबी) के पतन का असर दुनिया भर में पड़ना लाजिमी है।
ब्रिटेन में उसके संबद्ध बैंक का एचएसबीसी ने अधिग्रहण कर लिया, जापान का सॉफ्टबैंक विजन फंड पहले ही दबाव में है और उसका निवेश भी ज्यादा प्रभावित होगा, स्वीडन के पेंशन फंड को एक अरब डॉलर से अधिक का नुकसान हो चुका है। अभी तक भारत तक इसका असर नहीं आया है सिर्फ इसी नाम से मिलते जुलते नाम वाले एक सहकारी बैंक को इस पर सफाई देने की नौबत आयी है।
वैसे यह गौर करने लायक बात है कि एक बड़े वित्तीय संकट का तात्कालिक जोखिम और बैंकिंग जगत में इसका व्यापक संक्रमण नहीं हो सका क्योंकि अमेरिका में बाजार नियामकों ने सप्ताहांत पर तेजी से कदम उठाए।
रविवार को यह घोषणा की गई कि जहां बैंक की अंशधारिता समाप्त की जाएगी, वहीं संघीय सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि किसी जमाकर्ता को आर्थिक नुकसान न हो। अमेरिकी वित्त मंत्री जैनेट येलन को अच्छी तरह पता है कि एसवीबी के ग्राहकों को बचाने की राजनीतिक कीमत क्या होगी।
उनमें से अधिकांश अच्छी फंडिंग वाले टेक और स्टार्टअप उद्योग से आते हैं और मतदाताओं के बीच बहुत लोकप्रिय नहीं हैं। उन्होंने जोर देकर कहा है कि एसवीबी को उबारा नहीं जा रहा है और इस काम में करदाताओं के पैसे का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा। यह बात तकनीकी रूप से सही है कि बैंक और उसके प्रबंधन को नहीं उबारा जा रहा है।
परंतु व्यापक स्तर पर देखें तो बैंकिंग क्षेत्र पर एक नया कर लगाया जा रहा है ताकि पहले बिना गारंटी के रह रहे जमाकर्ताओं को गारंटी दी जा सके। जहां तक उबारने के लिए दिए जाने वाले पैकेजों की बात है तो आम जनता को बैंकिंग सेवाओं की अधिक कीमत चुकानी होगी। इसके अलावा एक नैतिक समस्या भी उत्पन्न होती है।
यह स्पष्ट है कि एसवीबी का प्रबंधन सही ढंग से नहीं हो रहा था: बैंक के पास लंबी अवधि के जो बॉन्ड थे उनकी कीमतों में गिरावट से बचाव के लिए उसने अधिक निवेश नहीं किया था, बैंक ने इस बात को ध्यान में नहीं रखा कि उसके जमाकर्ता एक ही उद्योग तक सीमित हैं और ऐसे में उस क्षेत्र में गिरावट आने पर सभी को पैसों की आवश्यकता हो सकती है।
बैंक ने ऋण वृद्धि को लेकर अपेक्षा से अधिक सकारात्मक अनुमान लगा रखा था। अमेरिकी नियामकों ने जो नए कदम उठाए हैं उनका भी सावधानीपूर्वक परीक्षण करने की आवश्यकता है। वर्ष 2018 में एसवीबी और अन्य छोटे बैंकों को संकट के बाद के बैंकिंग नियमन से राहत दी गई थी। परंतु अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व और वित्त विभाग ने पुरानी स्थिति को बहाल नहीं किया है।
इसके बजाय उन्होंने ब्याज दरों में इजाफे की तात्कालिक समस्या का हल किया है। एक नई व्यवस्था शुरू की गई है जो रेहन के मूल्यांकन के हिसाब से ऋण देगी जिससे बैंकों का यह जोखिम खत्म हो जाएगा कि उन्हें परिपक्वता के लिए रखे प्रपत्र को अचानक बाजार में पेश करना होगा।
क्या बैंकों के लिए ब्याज दर के जोखिम को समाप्त करना सही विचार है। इसके अलावा क्या सभी जमाकर्ताओं को नियमन की मदद से सुरक्षित किया जाना चाहिए? क्या बैंक इस स्थिति में बेहतर प्रतिस्पर्धा कर पाएंगे? ये सवाल अहम हैं क्योंकि पहली बार दुनिया में सोशल मीडिया के दौर में दरों में इजाफा हो रहा है।
एसवीबी मामले की तरह अब अफवाहें मिनटों में फैल जाएंगी और बैंकों के लिए संभावनाएं सीमित हैं। उच्च दरों के कारण बैंकों को भी जोखिम है और ऐसे में नए समय में नए नियमन जरूरत भी बन सकते हैं। परंतु पिछले दिनों जो मिलेजुले कदम उठाए गए क्या उन्हें अन्य जगह पर अपनाया जा सकता है या उन्हें स्थायी बनाया जा सकता है यह देखना होगा।
भारत समेत बैंकिंग नियामकों को और अधिक कदम उठाने होंगे। उसके बाद ही वैश्विक वित्तीय क्षेत्र को जोखिम से बचाव वाला ठहराया जा सकेगा। इससे जो सवाल उभरता है वह भारतीय परिदृश्य में अधिक महत्वपूर्ण है। भारत में भी बैंकिंग उद्योग को डूबने से बचाने के लिए सरकार को पैकेज देना पड़ा है।
कई बैकों को एक साथ मिलाया गया है। फिर भी बैंक बीमार क्यों हो जाते हैं, इसका उत्तर सरकार नहीं देती। दरअसल जनता का पैसा अधिक मुनाफे की लालच में गलत निवेश करना तथा बड़े कर्जदारों से कर्ज की वापसी नहीं होना, इसके मूल कारण है। हम अभी अडाणी विवाद को देख रहे हैं। इसलिए जनता के प्रति बैंक और सरकारों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे साफ साफ पैसा कहां लगाये हैं, इस बारे में जानकारी दें।