तीन चरणों वाले जम्मू और कश्मीर चुनावों के पहले दो दौर ने क्षेत्र के लिए राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों के बीच और राष्ट्रीय दलों, भाजपा और कांग्रेस के बीच प्रतिस्पर्धी दृष्टिकोण को सामने ला दिया है। यह 10 वर्षों में पहला विधानसभा चुनाव है, और 2019 में जम्मू कश्मीर द्वारा अपना राज्य का दर्जा और विशेष दर्जा खोने के बाद भी पहला चुनाव है।
नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने विशेष दर्जे की बहाली, विशेष रूप से अनुच्छेद 370 और 35 ए को वापस लाने के लिए लड़ने की कसम खाई है। दोनों दलों ने जेल में बंद युवाओं को रिहा करने और उनके खिलाफ मामले वापस लेने के समान वादे किए हैं।
उन्होंने सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम जैसे कानूनों को रद्द करने का भी संकेत दिया है, जिसका इस्तेमाल अक्सर स्थानीय लोगों को एहतियातन हिरासत में लेने के लिए किया जाता है दोनों ने उग्रवाद का समर्थन करने के संदेह में सैकड़ों सरकारी कर्मचारियों की बर्खास्तगी और प्रतिकूल पुलिस रिपोर्ट के आधार पर स्थानीय लोगों को पासपोर्ट और नौकरी देने से इनकार करने के मामले पर फिर से विचार करने का वादा किया है।
राज्य का दर्जा और पाकिस्तान के साथ बातचीत फिर से शुरू करने का मुद्दा भी इन क्षेत्रीय दलों के घोषणापत्रों का मुख्य मुद्दा है। राज्य के सवाल पर सभी दल सहमत हैं, लेकिन केंद्र में सत्ता में बैठी भाजपा अभी भी समयसीमा के बारे में कोई प्रतिबद्धता नहीं जता रही है। भाजपा ने विशेष दर्जा और अनुच्छेद 370 की वापसी से इनकार किया है। इसने इसे कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है, जिन्हें वह कश्मीर को शेष भारत से अलग-थलग करने के लिए जिम्मेदार ठहराती है।
भाजपा ने महत्वपूर्ण केंद्र शासित प्रदेश में जनादेश हासिल करने के अपने तीव्र प्रयास में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह सहित अन्य को मैदान में उतारा। पार्टी अपने वैचारिक कार्यक्रम के केंद्रीय हिस्सों में से एक को पूरा करते हुए जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म करने में सफल रही।
पार्टी ने हमेशा कश्मीर पर अपने रुख का इस्तेमाल देश के अन्य हिस्सों में लामबंदी की रणनीति के रूप में किया है। लेकिन, इस बार इसकी परीक्षा उस जगह हो रही है, जहां इसकी अहमियत है। कांग्रेस, जो नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ रही है, विशेष दर्जे के सवाल पर झिझक रही है।
इसके नेता राहुल गांधी ने संसद के भीतर और बाहर कश्मीर के लिए लड़ने का संकल्प लिया है, लेकिन अनुच्छेद 370 के पेचीदा मुद्दे पर चुप हैं।
जबकि उन्होंने भाजपा पर जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल का इस्तेमाल सत्ता को केंद्रीकृत करने और स्थानीय राजनीतिक नेतृत्व को शक्तिहीन करने के लिए करने का आरोप लगाया है, भाजपा ने कांग्रेस के एजेंडे और पाकिस्तान के एजेंडे के बीच समानताएं खींचने की कोशिश की है।
सत्ता की लड़ाई ने पार्टियों और अन्य अभिनेताओं को किसी भी संभावित अभिसरण से दूर कर दिया है। अब इससे अलग हटकर जम्मू के आम आदमी की बात करें तो व्यापारिक तौर पर जम्मू को इस फैसले से नुकसान हुआ है।
वहां के व्यापारियों से बात करने पर उनकी परेशानी सामने आती है। दरअसल पहले की स्थिति यह थी कि जाड़ा के मौसम में सरकार जम्मू चली आती थी। इससे मकान किराया, होटल का कारोबार के साथ साथ आम पर्यटकों की आमद भी बढ़ती थी।
लोग स्थानीय स्तर पर सामानों की खरीद किया करते थे। नरेंद्र मोदी सरकार के फैसले के बाद अब सरकार जम्मू नहीं आती। इससे सरकार आधारित कारोबार ठप पड़ गया है। दूसरी तरफ पर्यटन सुविधाओं के अधिक विकसित होने की वजह से देश विदेश के पर्यटक अब सीधे कश्मीर चले जाते हैं और बीच रास्ते में ठहरते नहीं।
धार्मिक पर्यटन की बात करें तो लोग सीधे माता वैष्णो देवी तक जाने के लिए जम्मू में समय नष्ट नहीं करते। लिहाजा पर्यटन और धार्मिक पर्यटन आधारित कारोबार भी प्रभावित हो गया है। जब फैसल लागू हुआ तो भाजपा के हिंदू कार्ड का माहौल जबर्दस्त था। व्यापारिक स्तर पर जब नुकसान बढ़ा तो स्थानीय व्यापारियों को इसका असर महसूस हुआ। इसलिए अब वे अपने और अपने परिवार के लिए नये सिरे से सोच रहे हैं क्योंकि सिर्फ हिंदू कार्ड के बहाने उनके परिवार का भरण पोषण तो नहीं हो सकता। इस बार के विधानसभा चुनाव में भाजपा की सोच जम्मू इलाके से अधिकाधिक सीटें जीतने की है। दूसरे राजनीतिक दल भी कुछ ऐसा ही समझते हैं। फिर भी यह सवाल महत्वपूर्ण हो गया है कि जम्मू को कारोबारी और तरक्की के पैमाने पर मोदी सरकार के फैसले से लाभ हुआ है अथवा नहीं। जनता के बीच यह एक ऐसा सवाल है, जो चुनावी राजनीति का मुद्दा तो नहीं बन सका लेकिन अंदरखाने में इस विषय पर चर्चा हो रही है।