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अभिव्यक्ति की आजादी पर कब्जा क्यों चाहिए

नए मसौदा प्रसारण सेवा (विनियमन) विधेयक ने ऐसे समय में सेंसरशिप में वृद्धि को लेकर व्यापक चिंताएँ पैदा की हैं, जब भारत का मीडिया परिदृश्य तीव्र राजनीतिक और व्यावसायिक दबाव में है। मसौदा विधेयक का उद्देश्य डिजिटल सामग्री निर्माताओं को सरकारी नियमों के दायरे में लाना है। यूट्यूब और अन्य डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर ऑनलाइन शो, जिनकी सामग्री को समसामयिक मामले या समाचार माना जाता है, उन्हें सरकार के साथ पंजीकरण कराना होगा, टेलीविज़न चैनलों के लिए आम तौर पर लागू नियमों का पालन करना होगा और मानकों की निगरानी के लिए आंतरिक समितियाँ स्थापित करनी होंगी। सामग्री निर्माताओं को यह सब अपने खर्च पर करना होगा। नियमों का पालन न करने पर भारी, संभावित रूप से अपंग करने वाला जुर्माना लग सकता है। कई प्रभावशाली और लोकप्रिय ऑनलाइन सामग्री निर्माता कम बजट पर काम करते हैं, अक्सर बिना पेशेवर उपकरणों और स्टूडियो के – बुनियादी ढाँचा जिसे वे वहन नहीं कर सकते। उनमें से कई ने नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा आगे बढ़ाए गए प्रमुख राजनीतिक आख्यानों के लिए तथ्य-जांचकर्ता और चुनौती देने वाले के रूप में काम करके हाल के महीनों और वर्षों में लोकप्रियता हासिल की है। इस पृष्ठभूमि को देखते हुए, इनमें से कई कंटेंट क्रिएटर्स ने अब सरकार पर आरोप लगाया है कि वह प्रस्तावित कानून का इस्तेमाल करके उनकी स्वतंत्रता को खत्म कर रही है, ताकि वे ऑनलाइन शो पोस्ट करना जारी रखने के लिए विनियामकों की सद्भावना पर निर्भर हो सकें। दरअसल यह घटनाक्रम भी साबित कर देता है कि मोदी सरकार ने जिन टीवी चैनलों और बड़े अखबारों के जरिए जनमानस के दिमाग पर नियंत्रण करने की योजना बनायी थी, वह बेकार हो गयी है। इन सरकार भक्त मीडिया वालों के जरिए जो कुछ परोसा जा रहा है, अब उन्हें भरोसेमंद नहीं माना जा रहा है। इसी वजह से यूट्यूब और दूसरे सोशल मीडिया माध्यमों से लोग जानकारी प्राप्त कर रहे हैं और अपने विचार भी व्यक्त कर रहे हैं। यह बदलाव दरअसल किसान आंदोलन के वक्त प्रारंभ हुआ था। टीवी चैनलों के एकतरफा आचरण की वजह से अनेक ऐसे सोशल मीडिया चैनल आ गये, जो किसान आंदोलन के घटनाक्रमों को हर रोज दिखा रहे थे। उनके दर्शकों की संख्या तेजी से बढ़ने की वजह से यह साफ हो गया कि सरकार जो दिखाना चाहती थी, उस पर जनता को भरोसा नहीं था।

वैसे इस किसान आंदोलन का अंतिम परिणाम क्या हुआ, यह हाल के लोकसभा चुनाव में स्पष्ट हो गया है। ऑनलाइन स्पेस, पारंपरिक प्रसारण प्लेटफ़ॉर्म की तुलना में कहीं ज़्यादा स्वतंत्र है, लेकिन यह गलत सूचनाओं और झूठ से भरा हुआ है।
ऐसे समय में जब सर्वेक्षणों से पता चलता है कि ज़्यादा से ज़्यादा भारतीय अपनी ख़बरों और विश्लेषण के लिए गैर-पारंपरिक प्लेटफ़ॉर्म की ओर रुख कर रहे हैं, डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म और कंटेंट क्रिएटर्स के लिए मौजूदा मानकों से ज़्यादा उच्च मानकों पर खरा उतरना ज़रूरी है। लेकिन ऐसा इस तरह से नहीं किया जाना चाहिए कि इससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित हो या डिजिटल क्रिएटर्स सरकार की सनक या राजनीतिक संवेदनशीलता की दया पर निर्भर हो जाएँ। आज कई मुख्यधारा के मीडिया प्लेटफ़ॉर्म, ख़ास तौर पर टेलीविज़न चैनल, ज़्यादातर मामलों में सरकार से सवाल नहीं करते, डिजिटल क्रिएटर्स भारतीय लोकतंत्र को एक महत्वपूर्ण सेवा प्रदान करते हैं। सत्ता में बैठे लोगों को स्वतंत्र और निडरता से चुनौती देने की उनकी क्षमता की रक्षा करना उन सभी लोगों की ज़िम्मेदारी है जो भारत में लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को महत्व देते हैं। उद्योग को अपना स्वतंत्र मॉडरेशन तंत्र स्थापित करना चाहिए। लेकिन सरकार की बात न मानने वाले कंटेंट क्रिएटर्स को दंडित करने के लिए एक सख्त नया कानून इसका जवाब नहीं है। इस प्रकार, मसौदा विधेयक को वापस लेने और संभवतः संशोधित करने का केंद्र का निर्णय एक समझदारी भरा कदम है। लेकिन इस संशोधन की कोशिश के  बाद भी अंततः सरकार अभिव्यक्ति की आजादी को कितनी छूट देगी, इस पर यकीनी तौर पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता है। दऱअसल टीवी चैनलों का हाल का इतिहास और कई ऐसे घटनाक्रम हैं, जो सरकार की मंशा पर संदेह व्यक्त करने के लिए पर्याप्त है। दूसरी तरफ वैकल्पिक मीडिया की बढ़ती ताकत से भी मोदी सरकार का परेशान होना एक बड़ी चुनौती है। देश के अनेक मुद्दों पर जो सरकार बताना चाहती थी, असली सच उससे भिन्न था, यह तथ्य जनता के सामने आ चुका है। लिहाजा ऐसी स्थिति में फिर से नये कानून के माध्यम से सरकार क्या करना चाहती है, यह देखने वाली बात होगी क्योंकि  सरकार चाहे किसी की भी हो, ऐसे अवसरों पर कथनी और करनी का अंतर बार बार नजर आता रहा है। वैसे भी देश के आर्थिक मॉडल और गरीबी बढ़ने की वजह से सरकार की मंशा पर अब जनता का संदेह बढ़ने लगा है।

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