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नफरती भाषण का दोहरा मापदंड क्यों

2010 के एक मामले में कथित गैरकानूनी गतिविधि के लिए लेखिका-कार्यकर्ता अरुंधति रॉय और शिक्षाविद शेख शौकत हुसैन पर मुकदमा चलाने की मंजूरी देना अनुचित है। दिल्ली के उपराज्यपाल वी के सक्सेना, जिन्होंने अक्टूबर 2023 में बुकर पुरस्कार विजेता लेखिका और कश्मीर विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर पर कथित रूप से विभाजनकारी भाषणों और राष्ट्रीय एकता के खिलाफ आरोपों के लिए मुकदमा चलाने की मंजूरी दी थी, ने अब उन्हीं भाषणों के लिए गैरकानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) की धारा 13 को लागू करने के लिए अपनी मंजूरी दे दी है।

पिछला मंजूरी आदेश दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 196 के तहत दिल्ली सरकार की ओर से उपयुक्त प्राधिकारी के रूप में उनकी क्षमता में था। हाल ही में, संभवतः केंद्र सरकार की ओर से, यूएपीए के अध्याय तीन के तहत अपराधों के लिए अभियोजन को मंजूरी देने के लिए उपयुक्त प्राधिकारी, जिसके अंतर्गत धारा 13 आती है।

इस पुराने मामले का फिर से उठना दुर्भावनापूर्ण अभियोजन का एक दुर्भाग्यपूर्ण उदाहरण है। 2010 में मजिस्ट्रेट अदालत के आदेश पर दर्ज इस मामले को फिर से शुरू करने के पीछे एकमात्र संभावित स्पष्टीकरण यह है कि मौजूदा सरकार ने असहमति जताने वालों और मुखर आलोचकों पर अपनी निरंतर कार्रवाई के तहत अब ऐसा करना उचित समझा है।

दो मंजूरी आदेशों के बीच आठ महीने का अंतर समझ से परे है, क्योंकि मंजूरी देने वाले अधिकारी के समक्ष एक ही सामग्री रखी गई होगी। वैसे सामाजिक स्तर पर इस आदेश के  बाद यह प्रश्न उठ जाता है कि फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनावी भाषणों का क्या होगा, जिस पर चुनाव आयोग पूरी तरह चुप्पी साधकर बैठ गया।

इन भाषणों में मटन, मंगलसूत्र से लेकर भैंस खींच ले जाने तक का आरोप लगाया गया था। ऐसी बातें तब बोली गयी जबकि शीर्ष अदालत ने पहले ही यह स्पष्ट कर दिया था कि इस किस्म के भाषणों पर रोक लगनी चाहिए जो समाज को बांटते हो। लेकिन ऐसा कुछ श्री मोदी के खिलाफ हुआ नहीं तो यह सवाल उठता है कि सत्ता के हित में दिये गये नफरती भाषणों के लिए क्या कोई दूसरा मापदंड है।

अरूंधति राय के मामले को समझे तो उस समय केंद्र की सरकार ने अक्टूबर 2010 में दिल्ली में आयोजित सम्मेलन में वक्ताओं पर मुकदमा चलाना उचित नहीं समझा। भले ही उस समय विपक्ष में बैठी भारतीय जनता पार्टी ने इसके लिए दबाव डाला लेकिन दिल्ली पुलिस ने भाषणों को देशद्रोही नहीं माना। इसकी अनिच्छा संभवतः इसलिए थी क्योंकि केंद्र नामित वार्ताकारों के माध्यम से कश्मीर समस्या का समाधान खोजने के प्रयासों को खतरे में नहीं डालना चाहता था।

जब मजिस्ट्रेट के समक्ष शिकायत दर्ज की गई, तो अदालत ने पुलिस रिपोर्ट मांगी, लेकिन दिल्ली पुलिस को नहीं लगा कि भाषणों के लिए देशद्रोह का मुकदमा चलाना उचित है। हालांकि, 27 नवंबर, 2010 को मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट ने पुलिस के रुख को खारिज कर दिया और एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दिया। एफआईआर में यूएपीए की धारा 13 शामिल थी, जो गैरकानूनी गतिविधियों को दंडित करने का प्रयास करती है।

सम्मेलन में दिए गए भाषणों में कश्मीर की स्थिति के बारे में आरोप हो सकते हैं, लेकिन यह संदिग्ध है कि हथियारों के आह्वान या हिंसा भड़काने के अभाव में केवल भाषण यूएपीए के तहत गैरकानूनी गतिविधि के रूप में माना जाएगा। किसी भी मामले में, जमीनी स्थिति में बहुत कुछ बदल गया है, खासकर 2019 में जम्मू और कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म करने और इसे दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित करने के बाद।

नई गठबंधन सरकार को असहमतिपूर्ण विचारों को दबाने के पिछले दौर के जुनून से दूर रहना चाहिए और भाषणों को आपराधिक बनाने की अपनी प्रवृत्ति को खत्म करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर अपने फैसले में आपराधिक मामलों को रद्द करने से इनकार कर दिया, जो कि अभद्र भाषा को मान्यता देने के लिए मौजूदा आपराधिक कानून की पर्याप्तता की पुष्टि है, भले ही गलती से या गलती से किया गया हो।

न्यायालय ने गरिमा के बीच अंतर किया, जिसे घृणा फैलाने वाले भाषण को अपराध घोषित करके संरक्षित किया जा सकता है और गरिमा की एक व्यापक या अधिक व्यक्तिवादी अवधारणा, जिसे मानहानि कानून द्वारा संरक्षित किया जाता है। न्यायालय ने गरिमा को बहुत महत्व दिया, क्योंकि यह राष्ट्र की एकता और अखंडता से जुड़ी हुई है और माना कि विभाजन और अलगाव न केवल लक्षित समूह की गरिमा को प्रभावित करता है, बल्कि देश की बहुलता और विविधता को भी प्रभावित करता है। अब इसके बाद भी अगर पक्षपात होता है तो उसे क्या समझा जाए। इसका उत्तर भी संबंधित पक्षों को ही जनता के बीच देना चाहिए।

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