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चुनाव आयोग जनता के प्रति उत्तरदायी बने

पहले से जो आरोप लग रहे थे, वे लगातार सही साबित हो रहे हैं। इस बार के चुनाव प्रचार में प्रधानमंत्री द्वारा लगातार नफरती भाषण देने के बाद भी आयोग उनका नाम तक लेने से कतरा रहा है। इससे कम गलती पर कई लोगों को चुनाव प्रचार से रोका गया है पर अब तक आयोग की यह हिम्मत नहीं हुई कि वह प्रधानमंत्री को सीधे सीधे हिदायत दे सके।

दूसरी तरफ आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि चुनावी आंकड़ों को जारी करना कोई कानूनी बाध्यता नहीं है। शायद आयोग यह भूल गया कि देश के सभी संस्थानों की अंतिम जिम्मेदारी जनता के प्रति ही है क्योंकि मूल बात यह है कि जनता के पैसे से ही यह सब कुछ संचालित होता है। जब कोरोना काल में जनता ने पैसा देना बंद कर दिया था तो देश का क्या हाल हुआ था, इस अनुभव के बाद भी सरकारी संस्थाएं बार बार जनता को नकारा समझने की गलती करती है।

इस बार भारतीय चुनाव आयोग द्वारा भाजपा और कांग्रेस को आम चुनाव में प्रचार में विभाजनकारी मुद्दों को उठाने से परहेज करने के लिए कहना देर आए दुरुस्त आए का मामला है। हाल के वर्षों में, ईसीआई ने चुनावों के प्रहरी के रूप में अपनी भूमिका में प्रभावी, निष्पक्ष और त्वरित होने में असमर्थता से भारतीय मतदाताओं को निराश किया है।

यह आंशिक रूप से ईसीआई के सदस्यों की नियुक्ति के तंत्र का एक कार्य है, जो पूरी तरह से कार्यपालिका का पक्षपातपूर्ण निर्णय है। ईसीआई ने अब भाजपा अध्यक्ष जे.पी.नड्डा को पत्र लिखकर पार्टी के स्टार प्रचारकों से ऐसे बयान देने से परहेज करने को कहा है जो समाज को विभाजित कर सकते हैं। इसका पत्र 13 मई को बांसवाड़ा, राजस्थान में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण के खिलाफ एक शिकायत पर उन्हें जारी किए गए नोटिस पर उनकी प्रतिक्रिया के बाद आया है।

वहां श्री मोदी ने मुसलमानों को घुसपैठिए और अधिक बच्चे वाले लोगों के रूप में संदर्भित किया था। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को लिखे पत्र में उनसे यह सुनिश्चित करने को कहा गया है कि पार्टी के स्टार प्रचारक ऐसे किसी भी बयान देने से बचें जिससे विभिन्न जातियों और समुदायों के बीच तनाव पैदा हो सकता है।

ईसीआई की ओर से पार्टियों को ये फटकार कलकत्ता उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश से पश्चिम बंगाल के तमलुक से भाजपा उम्मीदवार बने अभिजीत गंगोपाध्याय की तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी के खिलाफ उनकी टिप्पणी के लिए निंदा करने के एक दिन बाद आई है। उन्हें 24 घंटे के लिए चुनाव प्रचार करने से रोक दिया गया। इससे पहले, ईसीआई ने वाईएसआरसीपी प्रमुख वाई.एस. जगन रेड्डी के खिलाफ कार्रवाई की थी।

बीआरएस प्रमुख के.चंद्रशेखर राव, तेलंगाना मंत्री कोंडा सुरेखा, भाजपा नेता शोभा करंदलाजे और दिलीप घोष, और कांग्रेस नेता सुप्रिया श्रीनेत और रणदीप सुरजेवाला। यूपी के खिलाफ शिकायतें मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा पर पिछले सप्ताह आदर्श आचार संहिता के कथित उल्लंघन के आरोप में मुकदमा चल रहा है।

कुल मिलाकर, ये उपाय निष्पक्षता का आभास तो दे सकते हैं लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। ईसीआई उन नीतियों पर वैध बहसों के बीच एक गलत समानता मान रहा है जो विभिन्न सामाजिक समूहों को अलग-अलग तरीके से प्रभावित करती है और सामाजिक ध्रुवीकरण के लिए ज़ेनोफोबिया को उकसाती है। एमसीसी उन राजनीतिक बहसों और असहमतियों को दबाने की चाल नहीं हो सकती जो चुनाव प्रचार के केंद्र में हैं और होनी भी चाहिए।

सत्ता का दुरुपयोग और वैमनस्य पैदा करना एक अलग श्रेणी में आता है। चुनाव की वैधता के लिए ईसीआई की अखंडता और विश्वसनीयता केंद्रीय है। इसकी स्वतंत्रता को सुदृढ़ करना भारतीय लोकतंत्र के सभी हितधारकों, विशेषकर राजनीतिक दलों और न्यायपालिका के लिए प्राथमिकता होनी चाहिए। ईसीआई इतना महत्वपूर्ण है कि उसे अपने ऊपर ही नहीं छोड़ा जा सकता।

इस किस्म की कमजोरियां दरअसल देश के लोकतंत्र को ही कमजोर करती है, इसका एहसास देश की जनता को है क्योंकि इस देश ने पूर्व में टीएन शेषन जैसे चुनाव आयुक्त के काम काज को भी देखा है। इसलिए चुनाव आयोग के काम काज के अंतर को समझना कठिन नहीं है। किस मतदान केंद्र पर कितने वोट पड़े, इस बारे में भी कानूनी बाध्यता नहीं होने की दलील दी जा रही है।

इससे पहले आयोग ऐसे आंकड़े जारी करता रहा है और तब इसे लेकर कभी कोई बहस नहीं होती थी। इस बार आयोग की दलील है कि मतदान केंद्रों पर मौजूद बूथ एजेंटों के पास यह आंकड़ा मौजूद है। इसलिए अलग से जनता को इसे बताने की आवश्यकता नहीं है। अब यह कौन प्रश्न करेगा कि आयोग के लोगों के वेतन सहित अन्य खर्च को प्रत्याशी वहन करते हैं या देश की जनता, जिन्हें जानकारी देने से आयोग परहेज कर रहा है।

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