दस हजार में से सिर्फ पांच सौ असली लोगों को नौकरी और शेष सारे फर्जी लोगों की बहाली। अगर यह मामला किसी दूसरे प्रदेश या देश में हुआ होता तो शायद सरकार भी बदल गयी होती। यहां भी सरकारें बदली हैं पर उनकी वजह से कुछ और थी यह इतना बड़ा घोटाला नहीं था। दरअसल बहती गंगा में किन लोगों ने हाथ धोया है, यह गहन जांच का विषय है क्योंकि बार बार दिल्ली से मामले की जांच के पत्र आने के बाद भी हर बार ऐसे पत्र गुम हो गये। नतीजा वही ढाक के तीन पात रहे।
दामोदर घाटी निगम में नौकरी का इतना बड़ा गोरखधंधा होने के बाद भी राजनीतिक तौर पर झारखंड से विरोध का तेज स्वर नहीं उठना ही झारखंड के लोगों का हक छीने जाने की एक वजह सामने लाती है। इसी वजह से ऐसा कहना पड़ता है कि अगर ऐसा झारखंड के बदले किसी दूसरे राज्य में हुआ होता तो यह सत्ता परिवर्तन और भीषण राजनीतिक संघर्ष का एक प्रमुख कारण बनकर इतिहास में दर्ज हो चुका होता। लेकिन झारखंड को चारागाह समझने वालों को यहां के अधिकारियों के लोभ और विकार की अच्छी जानकारी है। इसलिए किसी भी स्तर पर जब भी इसके खिलाफ कोई सुगबुगाहट हुई तो उसे दूसरे तरीके से चुप करा दिया है। इतना कुछ होने के बाद भी इस एक लाख करोड़ से अधिक के घोटाले के सारे साक्ष्य अब भी मौजूद हैं और किसी भी स्तर पर दुनिया में उनका खंडन आज तक नहीं हो पाया है।
खास घोषणा
यूं तो समाचार पत्र की तरफ से अच्छे लेखन अथवा सकारात्मक कार्यों के लिए पुरस्कार की घोषणा की जाती है। फिर भी देश के इस सबसे बड़े ( शायद विश्व के) घोटाले की तरफ जनता का ध्यान आकृष्ट करने के लिए राष्ट्रीय खबर भी इस रिपोर्ट में प्रकाशित तथ्यों का तथ्यात्मक खंडन करने वाले के लिए एक लाख का ईनाम घोषित करता है। वैसे यह लालच देना नहीं है बल्कि झारखंड के साथ हुए अन्याय पर साधी गयी चुप्पी के प्रति जनता को आगाह करने की कोशिश भर है।
एक साधारण से उदाहरण से बात की गंभीरता समझ में आ जाती है। संथालपरगना के दुमका का एक आदिवासी गांव। यहां के सारे निवासी आदिवासी हैं। डीवीसी की इस धांधली में इस गांव के नाम पर जिन्हें नौकरी और मुआवजा देने का रिकार्ड दर्ज है, उनमें से कोई भी आदिवासी नहीं है। जांच से पता चलता है कि यह सारे लोग पश्चिम बंगाल के निवासी थे, जिन्हें दुमका के इस आदिवासी गांव के नाम पर नाजायज दोहरा लाभ दिया गया।
यह शायद दुनिया का सबसे बड़ा नियुक्ति घोटाला है। जिसकी जानकारी एक नहीं कई बार देश की राजधानी तक पहुंची थी। वहां से जांच का पत्र आने के बाद भी हर बार जांच के पत्र को ही गायब कर दिया जाता रहा। यह मामला झारखंड बनने के पहले से ही चल रहा था। शोषण के खिलाफ बने इस अलग राज्य की नींव रखे जाने के बाद भी यहां के मूलवासी और आदिवासियों के हितों की अनदेखी स्थानीय नेताओं ने भी की है। कोयलकारो परियोजना का जोरदार विरोध तो हुआ पर डीवीसी के इस सबसे बड़े गोरखधंधे पर अजीब किस्म की चुप्पी हर बार रही।
याद दिला दें कि हरियाणा में इसी किस्म की एक गड़बड़ी की वजह स पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला तक को जेल जाना पड़ा था। यही हरियाणा और झारखंड का अंतर बताने के लिए पर्याप्त है। दूसरे राज्यों में जमीन के छोटे से टुकड़े पर गड़बडी की शिकायत पर अनेक राजनीतिज्ञों का राजनीतिक जीवन ही समाप्त हो गया है। इसके एक नहीं अनेक उदाहरण है। लेकिन झारखंड में यह छोटा सा जमीन का टुकड़ा नहीं बहुत विशाल भूखंड हैं। यहां के सारे लोगों को विस्थापित कर दिया गया। इन विस्थापितों के नाम पर मुआवजा भी दिया गया और साथ में नौकरी भी। दुर्भाग्यवश जो असली विस्थापित थे, उन्हें इसका कोई लाभ नहीं मिला। प्रारंभिक अवस्था में कुछ लोगों ने इसके खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश भी की थी पर बेरहमी से इस आवाज को दबा दिया गया। इतना कुछ होने के बाद भी यह मामला नीचे से ऊपर तक किसी न किसी स्तर पर जीवित रहा है। निचली अदालत से शीर्ष अदालत तक इसकी शिकायत की गयी है। असली गड़बड़ी जांच प्रारंभ करने पर है जबकि जांच की चिट्ठी आती तो है पर पता नहीं कहां गुम हो जाती है। इस घोटाला में कुल अभियुक्तों की संख्या भी शायद दस हजार के करीब हैं। इनमें से नौ हजार तो वे लोग हैं, जो फर्जी तौर पर डीवीसी में नियुक्त हुए थे।
अजीब स्थिति यह है कि सर्वोच्च न्यायालय तक भी यह मामला पहुंचा। देश के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक ने जांच की सिफारिश की। हर बार झारखंड आते आते इस जांच की फाइल ही गुम हो जाती है। इस जांच की फाइल को गुम करने वाले उच्चाधिकारियो के खिलाफ भी कार्रवाई की अनुशंसा हुई पर राजनीतिक रसूख का यह आलम है कि लोग सरकारी सेवा से बड़े आराम से रिटायर भी हो गये पर जांच की फाइल आगे नहीं बढ़ी।
दो राज्यों को मिलाकर हुआ था जमीन का अधिग्रहण
यह नियुक्ति घोटाला डीवीसी यानी दामोदर वैली कॉरपोरेशन का है। इसमें सिर्फ झारखंड ही नहीं बल्कि पश्चिम बंगाल का इलाका भी शामिल है। इस मामले में याचिकादाता और सामाजिक कार्यकर्ता रामाश्रय प्रसाद सिंह ने अपने शपथ पत्र के साथ आरोपों से संबंधित सारे दस्तावेज भी संलग्न किये हैं। किसी भी पक्षकार ने इन आरोपों का खंडन नहीं किया है और ना ही दिये गये आरोप संबंधी दस्तावेजों का खंडन किया है। अजीब स्थिति यह है कि सत्ता ने हर बार इस मामले की जांच की मांग उठाने वाले को ही प्रताड़ित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कुछ अधिकारियों के बारे में पता है कि मामले को दबाने के एवज में उनलोगों ने भी बहती गंगा में हाथ धो लिया और अपने कई दर्जन लोगों को डीवीसी की नौकरी में बहाल करा दिया।
इस महाघोटाला की नींव जमीन अधिग्रहण पर टिकी है। डीवीसी ने मैथन और पंचेत डैम के लिए जमीन का अधिग्रहण किया था। जिनलोगों की जमीन ली गयी, उन्हें नौकरी नहीं मिली बल्कि उनके बदले दूसरों को यह नौकरी दे दी गयी। 1993 में डीवीसी की शुरुआत हुई थी।
जल विद्युत परियोजना के लिए धनबाद और पश्चिम बंगाल के दो जिलों को मिलाकर कुल 41 हजार एकड़ जमीन ली गयी। इस परियोजना के लिए चार हजार घरों को भी इसके दायरे में शामिल किया गया था। स्थानीय लोगों के मुताबिक उस दौर की इतनी बड़ी परियोजना की वजह से करीब 240 गांव प्रभावित हुए और करीब सत्तर हजार लोगों को विस्थापित होना पड़ा। जमीन अधिग्रहण के बदले नौकरी में यह खेल हुआ। अब भी जमीन देने वाले वास्तविक लोग मौजूद हैं और उनमें से किसी को भी नौकरी नहीं मिली है। यानी नौ हजार विस्थापितों की नौकरी दूसरों में बांट दी गयी।
विस्थापित और उनके परिवार के दूसरे लोग इस अन्याय के खिलाफ तभी से संघर्ष कर रहे हैं। शिकायतों को नीचे से ऊपर तक पहुंचाया गया। यहां तक यह पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह, पूर्व उप राष्ट्रपति डॉ हामिद अंसारी एवं राष्ट्रपति कार्यालय तक यह शिकायत पहुंचने के बाद सीबीआई जांच क सिफारिश की चिट्टियां जारी हुई थी। उपलब्ध दस्तावेज बताते हैं कि केंद्रीय गृह सचिव ने इस संबंध में झारखंड के गृह सचिव को और बाद में मुख्य सचिव को पत्र लिखा था।
इस खेल को समझने के लिए सिर्फ दुमका के भू अर्जन कार्यालय का वह दस्तावेज ही साक्ष्य है कि जिन्हें नौकरी दी गयी है, उनकी जमीन के अधिग्रहण का कोई रिकार्ड वहां के रजिस्टर में दर्ज नहीं है। इस बारे में सूचना के अधिकार के तहत दस लोगों के बारे में जानकारी मांगी गयी थी।
जिनलोगों के बारे में सूचना मांगी गयी थी, वे डीवीसी के वैसे कर्मचारी हैं, जिन्हें विस्थापित बताकर नौकरी दी गयी है। इसी तरह याचिकाकर्ता ने घूम घूमकर उन 240 गावों से सूचनाएं एकत्रित की, जिससे पता चला कि नौ हजार विस्थापितों में से किसी को भी नौकरी नहीं दी गयी है। यानी उनके बदले दूसरों को विस्थापित बताकर डीवीसी में बहाल किया गया था। इसकी पुष्टि इस बात से भी हो जाती है कि जब ऐसा ही मामला उच्च न्यायालय में गया तो कोलकाता उच्च न्यायालय के निर्देश पर 9 लोगों को सेवा से बर्खास्त करना पड़ा। इसके बाद भी साढ़े नौ हजार लोग इसी तरह दूसरों का हक छीनकर नौकरी और मुआवजा हड़प गये, उनकी न तो झारखंड ने जांच की और न ही झारखंड के हितों के साथ हुए इस कुठाराघात के खिलाफ किसी नेता ने बुलंद आवाज ही उठायीय़
केंद्र और राज्य सरकार के बीच जारी पत्राचार के साथ साथ यह मामला उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक जा पहुंचा। इन मामलों में डीवीसी अथवा संबंधित सरकारों ने कभी इस बात का खंडन नहीं किया कि फर्जी बहाली हुई है और असली विस्थापितों के बदले नकली विस्थापित नौकरी पा चुके थे। इसके बाद भी हर बार दिल्ली से जांच के लिए चलकर आने वाला पत्र झारखंड पहुंचने के बाद कहां गुम हो जाता है, यह बड़ा सवाल है।
इस महाघोटाला में दस हजार के करीब अभियुक्त
यह मामला शायद पूरी दुनिया का अकेला मामला है, जिसमें फर्जीवाड़ा में दस हजार से अधिक अभियुक्त हैं। इन अभियुक्तों में रिटायर हो चुके अथवा सेवारत अनेक सरकारी अधिकारी और कर्मचारी भी शामिल हैं। जिन्होंने इस गड़बड़ी में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष भूमिका निभायी है। वैसे पूर्व अनुभवों से इसमें राजनीतिक दखलंदाजी होने से भी इंकार नहीं किया जा सकता क्योंकि सत्ता बदलने के बाद भी जांच की गाड़ी आगे नहीं बढ़ने का सबसे प्रमुख कारण राजनीतिक हित का फंसना भी होता है।
दुमका के भूअर्जन कार्यालय द्वारा उपलब्ध कराये गये दस्तावेज यह कहते हैं कि जिन दस लोगों को विस्थापित होने का दावा वहां से किया गया है, वे दरअसल कार्यालय के रजिस्टर में दर्ज नहीं है। इससे इन दस लोगों के बारे में साफ हो जाता है कि यह दस लोग फर्जी विस्थापित बनाकर डीवीसी में बहाल किये गये थे।
कृष्णा सोरेन ने सूचना के अधिकार के तहत यह जानकारी मांगी थी, जिसे भू अर्जन कार्यालय ने पने 29 मई 2020 के जरिए उपलब्ध कराया था। इसी तरह कुल नौ हजार लोग इसी तरीके से बहाल हुए हैं, जिन्हें डीवीसी ने विस्थापित बताकर नौकरी दी है। दस्तावेजों के अध्ययन से पता चलता है कि डीवीसी ने जिन लोगो को बहाल किया था, उनमें सिर्फ पांच सौ लोग ही असली विस्थापित हैं। शेष विस्थापितों की नौकरी की बंदरबांट कर दी गयी थी। जामताड़ा अंचल कार्यालय से 11 अप्रैल 2015 को जारी पत्र में डीवीसी से विस्थापितों की पूर्ण सूची एवं रामाश्रय सिंह द्वारा उठाये गये मुद्दों पर जानकारी उपलब्ध कराने को कहा गया था।
नीचे से ऊपर तक न्याय की मांग करने वाली चिट्ठी अंततः दिल्ली में प्रधानमंत्री कार्यालय तक भी पहुंची थी। वहां से एक नहीं कई बार झारखंड के मुख्य सचिव को इस संबंध में उचित कार्रवाई करने का पत्र भी निर्गत हुआ। 5 मई 2014 के इस पत्र में केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय के इस पत्र में साफ लिखा गया था कि पुलिस और विधि व्यवस्था राज्य के अंतर्गत विषय हैं। इसलिए ऐसे किसी मामले में केंद्र सरकार सीधे सीबीआई जांच की अनुशंसा नहीं कर सकती है।
जल विद्युत परियोजना के लिए धनबाद और पश्चिम बंगाल के दो जिलों को मिलाकर कुल 41 हजार एकड़ जमीन ली गयी। इस परियोजना के लिए चार हजार घरों को भी इसके दायरे में शामिल किया गया था। स्थानीय लोगों के मुताबिक उस दौर की इतनी बड़ी परियोजना की वजह से करीब 240 गांव प्रभावित हुए और करीब सत्तर हजार लोगों को विस्थापित होना पड़ा। जमीन अधिग्रहण के बदले नौकरी में यह खेल हुआ। अब भी जमीन देने वाले वास्तविक लोग मौजूद हैं और उनमें से किसी को भी नौकरी नहीं मिली है। यानी नौ हजार विस्थापितों की नौकरी दूसरों में बांट दी गयी।
विस्थापित और उनके परिवार के दूसरे लोग इस अन्याय के खिलाफ तभी से संघर्ष कर रहे हैं। शिकायतों को नीचे से ऊपर तक पहुंचाया गया। यहां तक यह पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह, पूर्व उप राष्ट्रपति डॉ हामिद अंसारी एवं राष्ट्रपति कार्यालय तक यह शिकायत पहुंचने के बाद सीबीआई जांच क सिफारिश की चिट्टियां जारी हुई थी। उपलब्ध दस्तावेज बताते हैं कि केंद्रीय गृह सचिव ने इस संबंध में झारखंड के गृह सचिव को और बाद में मुख्य सचिव को पत्र लिखा था।
शुद्ध आदिवासी गांव में बंगाली नाम को मिला फायदा
इस खेल को समझने के लिए सिर्फ दुमका के भू अर्जन कार्यालय का वह दस्तावेज ही साक्ष्य है कि जिन्हें नौकरी दी गयी है, उनकी जमीन के अधिग्रहण का कोई रिकार्ड वहां के रजिस्टर में दर्ज नहीं है। इस बारे में सूचना के अधिकार के तहत दस लोगों के बारे में जानकारी मांगी गयी थी।
जिनलोगों के बारे में सूचना मांगी गयी थी, वे डीवीसी के वैसे कर्मचारी हैं, जिन्हें विस्थापित बताकर नौकरी दी गयी है। इसी तरह याचिकाकर्ता ने घूम घूमकर उन 240 गावों से सूचनाएं एकत्रित की, जिससे पता चला कि नौ हजार विस्थापितों में से किसी को भी नौकरी नहीं दी गयी है। यानी उनके बदले दूसरों को विस्थापित बताकर डीवीसी में बहाल किया गया था। इसकी पुष्टि इस बात से भी हो जाती है कि जब ऐसा ही मामला उच्च न्यायालय में गया तो कोलकाता उच्च न्यायालय के निर्देश पर 9 लोगों को सेवा से बर्खास्त करना पड़ा।
केंद्र और राज्य सरकार के बीच जारी पत्राचार के साथ साथ यह मामला उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक जा पहुंचा। इन मामलों में डीवीसी अथवा संबंधित सरकारों ने कभी इस बात का खंडन नहीं किया कि फर्जी बहाली हुई है और असली विस्थापितों के बदले नकली विस्थापित नौकरी पा चुके थे। इसके बाद भी हर बार दिल्ली से जांच के लिए चलकर आने वाला पत्र झारखंड पहुंचने के बाद कहां गुम हो जाता है, यह बड़ा सवाल है।
यह मामला शायद पूरी दुनिया का अकेला मामला है, जिसमें फर्जीवाड़ा में दस हजार से अधिक अभियुक्त हैं। इन अभियुक्तों में रिटायर हो चुके अथवा सेवारत अनेक सरकारी अधिकारी और कर्मचारी भी शामिल हैं। जिन्होंने इस गड़बड़ी में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष भूमिका निभायी है। वैसे पूर्व अनुभवों से इसमें राजनीतिक दखलंदाजी होने से भी इंकार नहीं किया जा सकता क्योंकि सत्ता बदलने के बाद भी जांच की गाड़ी आगे नहीं बढ़ने का सबसे प्रमुख कारण राजनीतिक हित का फंसना भी होता है।
दुमका के भूअर्जन कार्यालय द्वारा उपलब्ध कराये गये दस्तावेज यह कहते हैं कि जिन दस लोगों को विस्थापित होने का दावा वहां से किया गया है, वे दरअसल कार्यालय के रजिस्टर में दर्ज नहीं है। इससे इन दस लोगों के बारे में साफ हो जाता है कि यह दस लोग फर्जी विस्थापित बनाकर डीवीसी में बहाल किये गये थे। आदिवासी हितों के झंडाबरदारों ने यह जानने तक की कोशिश नहीं की कि एक आदिवासी गांव में इतने सारे बंगाली कहां से आये थे और डीवीसी ने इस गांव के विस्थापितों के नाम पर उन्हें जमीन का मुआवजा और नौकरी कैसे दे दी।
दरअसल कृष्णा सोरेन ने सूचना के अधिकार के तहत यह जानकारी मांगी थी, जिसे भू अर्जन कार्यालय ने पने 29 मई 2020 के जरिए उपलब्ध कराया था। इसी तरह कुल नौ हजार लोग इसी तरीके से बहाल हुए हैं, जिन्हें डीवीसी ने विस्थापित बताकर नौकरी दी है। दस्तावेजों के अध्ययन से पता चलता है कि डीवीसी ने जिन लोगो को बहाल किया था, उनमें सिर्फ पांच सौ लोग ही असली विस्थापित हैं। शेष विस्थापितों की नौकरी की बंदरबांट कर दी गयी थी। जामताड़ा अंचल कार्यालय से 11 अप्रैल 2015 को जारी पत्र में डीवीसी से विस्थापितों की पूर्ण सूची एवं रामाश्रय सिंह द्वारा उठाये गये मुद्दों पर जानकारी उपलब्ध कराने को कहा गया था।
नीचे से ऊपर तक न्याय की मांग करने वाली चिट्ठी अंततः दिल्ली में प्रधानमंत्री कार्यालय तक भी पहुंची थी। वहां से एक नहीं कई बार झारखंड के मुख्य सचिव को इस संबंध में उचित कार्रवाई करने का पत्र भी निर्गत हुआ। 5 मई 2014 के इस पत्र में केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय के इस पत्र में साफ लिखा गया था कि पुलिस और विधि व्यवस्था राज्य के अंतर्गत विषय हैं। इसलिए ऐसे किसी मामले में केंद्र सरकार सीधे सीबीआई जांच की अनुशंसा नहीं कर सकती है।
इसलिए झारखंड सरकार अपनी तरफ से इस मामले की सीबीआई जांच की अनुशंसा करे। इस मामले में धनबाद के टुंडी क्षेत्र के विधायक मथुरा प्रसाद महतो ने भी 4 अगस्त 2014 को एक पत्र झारखंड विधानसभा के अध्यक्ष को भेजा था। जिसमें राज्य सरकार से यह सवाल पूछा गया था कि असली विस्थापितों के बदले गैर विस्थापितों को नौकरी देने के डीवीसी के मामले में राज्य सरकार क्या कार्रवाई कर रही है। हर बार झारखंड तक पत्र पहुंचने के बाद यह गायब होती रही।
विस्थापितों की सूची में धनबाद जिला भी है, जहां के शिमापाथर गांव की जमीन और घरों का अधिग्रहण हुआ और कागज पर यहां के दो सौ लोगों को नियुक्ति दी गयी। वास्तव में इस गांव के किसी को भी यह नौकरी नहीं मिली। श्री सिंह की याचिका में इस बात का भी उल्लेख है कि केंद्रीय गृह सचिव ने भी इस बारे में सीबीआई से जांच की अनुशंसा करने का पत्र झारखंड सरकार को भेजा था। यह पत्र भी अपने अंतिम निष्कर्ष तक नहीं पहुंचा और चिट्टी बीच रास्ते में गायब हो गयी।
सुप्रीम कोर्ट से लेकर लोअर कोर्ट और सभी संबंधित सरकारी कार्यालयों के पत्राचार से यह पता चलता है कि किसी भी पक्ष में अब तक नौ हजार लोगों की फर्जी बहाली से कभी इंकार भी नहीं किया है। इसी क्रम में इस बात की भी जानकारी मिली है कि कई अवसरों पर डीवीसी की तरफ से अदालत में जो जानकारी प्रस्तुत की गयी है, वह सवालों का उत्तर नहीं है।
डीवीसी ने सिर्फ यह जताने की कोशिश की है कि याचिकादाता रामाश्रय सिंह के अपराधी किस्म के व्यक्ति हैं तथा उनके खिलाफ अनेक मामले चल रहे हैं। यह अलग बात है कि डीवीसी ने जिन मामलों का उल्लेख किया है, वे राजनीतिक आंदोलन के मामले थे और उनमें रामाश्रय सिंह की जीत हो चुकी है।
अपने यहां नौ हजार फर्जी बहाली को वह कहीं भी अस्वीकार नहीं करता। दस्तावेजों को देखने से यह प्रतीत होता है कि यह पूरा मामला झारखंड के कई मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल में उनके भी संज्ञान में आया था। किसी ने विधि सम्मत कार्रवाई की अनुशंसा भी की। इसके बाद भी फाइल फिर से कहीं गुम हो गयी। बार बार यह फाइल क्यों और कहां गुम हो जाती है, इस सवाल का उत्तर भी किसी व्यापक जांच से मिल सकता है।
इसलिए झारखंड सरकार अपनी तरफ से इस मामले की सीबीआई जांच की अनुशंसा करे। इस मामले में धनबाद के टुंडी क्षेत्र के विधायक मथुरा प्रसाद महतो ने भी 4 अगस्त 2014 को एक पत्र झारखंड विधानसभा के अध्यक्ष को भेजा था। जिसमें राज्य सरकार से यह सवाल पूछा गया था कि असली विस्थापितों के बदले गैर विस्थापितों को नौकरी देने के डीवीसी के मामले में राज्य सरकार क्या कार्रवाई कर रही है। हर बार झारखंड तक पत्र पहुंचने के बाद यह गायब होती रही।
विस्थापितों की सूची में धनबाद जिला भी है, जहां के शिमापाथर गांव की जमीन और घरों का अधिग्रहण हुआ और कागज पर यहां के दो सौ लोगों को नियुक्ति दी गयी। वास्तव में इस गांव के किसी को भी यह नौकरी नहीं मिली। श्री सिंह की याचिका में इस बात का भी उल्लेख है कि केंद्रीय गृह सचिव ने भी इस बारे में सीबीआई से जांच की अनुशंसा करने का पत्र झारखंड सरकार को भेजा था। यह पत्र भी अपने अंतिम निष्कर्ष तक नहीं पहुंचा और चिट्टी बीच रास्ते में गायब हो गयी।
सुप्रीम कोर्ट से लेकर लोअर कोर्ट और सभी संबंधित सरकारी कार्यालयों के पत्राचार से यह पता चलता है कि किसी भी पक्ष में अब तक नौ हजार लोगों की फर्जी बहाली से कभी इंकार भी नहीं किया है। इसी क्रम में इस बात की भी जानकारी मिली है कि कई अवसरों पर डीवीसी की तरफ से अदालत में जो जानकारी प्रस्तुत की गयी है, वह सवालों का उत्तर नहीं है।
डीवीसी ने सिर्फ यह जताने की कोशिश की है कि याचिकादाता रामाश्रय सिंह के अपराधी किस्म के व्यक्ति हैं तथा उनके खिलाफ अनेक मामले चल रहे हैं। यह अलग बात है कि डीवीसी ने जिन मामलों का उल्लेख किया है, वे राजनीतिक आंदोलन के मामले थे और उनमें रामाश्रय सिंह की जीत हो चुकी है।
दामोदर घाटी निगम ने हर बार इन आरोपों के बारे में अपना पक्ष रखते हुए यह कभी नहीं कहा है कि उनके यहां फर्जी लोगों की बहाली हुई है अथवा नहीं हुई है। वह बार बार इस मूल सवाल का उत्तर देने से बचता जा रहा है। बीच बीच में राजनेताओं ने इस पर सवाल उठाये, पत्राचार किये, तो डीवीसी के अधिकारियों ने उन्हें भी अपने लोगों क नौकरी पर रखने का अवसर प्रदान कर दिया। इस लाभ की वजह से राजनीतिक आवास भी बुलंद तरीके से नहीं उठ पायी। डीवीसी अपने यहां नौ हजार फर्जी बहाली को वह कहीं भी अस्वीकार नहीं करता। दस्तावेजों को देखने से यह प्रतीत होता है कि यह पूरा मामला झारखंड के कई मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल में उनके भी संज्ञान में आया था। किसी ने विधि सम्मत कार्रवाई की अनुशंसा भी की। इसके बाद भी फाइल फिर से कहीं गुम हो गयी। बार बार यह फाइल क्यों और कहां गुम हो जाती है, इस सवाल का उत्तर भी किसी व्यापक जांच से मिल सकता है। लेकिन इसके बीच का सबसे अहम सवाल यह है कि झारखंड में वह कौन सा केंद्र अथवा कार्यालय है जो बार बार दिल्ली से आने वाले पत्रों की दबा लेता है और इस मामले की जांच की गाड़ी को आगे नहीं बढ़ने देता है। इस एक मुद्दे की जांच से ही एक नहीं अनेक चेहरे बदरंग हो जाएंगे क्योंकि इस जांच के पत्र को गायब करने के पीछे भी शायद एक संगठित गिरोह काम करता रहा है।
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