Breaking News in Hindi

आबादी के कल्याण हेतु किसान की चिंता जरूरी

भारत में वर्तमान माहौल में अब ग्रामीण इलाकों में खेती को एक मजबूरी का कारोबार समझा जाने लगा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अनेक अवसरों पर किसानों को उनकी लागत के बराबर भी कीमत नहीं मिल पा रही है। ग्रामीण इलाकों में सब्जियों के ढेर सड़क किनारे फेंके हुए नजर आते हैं।

इसलिए दिल्ली की सीमा पर चले किसान आंदोलन के घटनाक्रमों को याद करते हुए अब इस बात को समझना होगा कि 142 करोड़ से अधिक की आबादी का जश्न मनाने के साथ साथ इतने लोगों के मुंह में निवाला देना और उनके लिए रोजगार का इंतजाम करना कोई आसान काम नहीं है।

वैसे भी अधिक आबादी होने के अर्थ यह नहीं होता कि हम प्रतिस्पर्धा के मामले में दूसरों को पछाड़ दें। चीन, जापान, सिंगापुर, कोरिया और ताइवान जैसे देशों ने खास तौर पर इलेक्ट्रानिक सामानों के मामले में जो वर्चस्व स्थापित कर रखा है, वह बताता है कि आधुनिक व्यापारिक वैज्ञानिक उत्पादन के मामले में भारत काफी पीछे है। भले ही हम अंतरिक्ष विज्ञान में काफी आगे निकल चुके हैं, लेकिन उससे लोगों के मुंह में रोटी नहीं दी जा सकती है। वैसे इस बात को भी समझ लेना होगा कि आबादी का यह आंकड़ा सामने आने के तुरंत बाद

चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता वांग वेनबिन ने कहा, मैं आपको बताना चाहता हूं कि जनसंख्या लाभांश मात्रा पर निर्भर नहीं करता है, बल्कि गुणवत्ता पर भी निर्भर करता है। उनके मुताबिक बीजिंग ने देश के विकास की दिशा में काम करने वाले लगभग 900 मिलियन लोगों के साथ एक बेहतर प्रशिक्षित कार्यबल का दावा किया। वर्तमान जनसांख्यिकी के संदर्भ में भारत की एक चौथाई आबादी 14 वर्ष से कम है, जबकि 18 प्रतिशत 10 से 19, 26 प्रतिशत के बीच 10 से 24, और 68 प्रतिशत के बीच हैं।

यह विकास ऐसे समय में आता है जब जर्मनी, यूके और जापान जैसे कई विकसित राष्ट्रों को सिकुड़ते कार्यबल का सामना करना पड़ रहा है। इसके बाद, उनकी सरकारें आव्रजन नीतियों की शुरुआत कर रही हैं जो इन देशों में अपने घरों को स्थापित करने के लिए अत्यधिक कुशल व्यक्तियों को आमंत्रित करती हैं।

भारत की बढ़ती आबादी को ऐतिहासिक रूप से कुछ नकारात्मक के रूप में देखा गया है, जो कि यह मूल संसाधनों पर तनाव को देखते हुए है। हाल ही में, हालांकि, ऐसा लगता है कि परिप्रेक्ष्य में एक बदलाव आया है क्योंकि कुछ दलों का तर्क है कि दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे कम उम्र की आबादी के अपने भत्तों की है।

किसी भी तरह से, भारत में वर्तमान में दुनिया का ध्यान है, और सभी के पास एक अंतर्निहित प्रश्न है: क्या भारत की बढ़ती आबादी इसे त्वरित विकास में ले जाएगी। बेल्जियम में जन्मे भारतीय विकासात्मक अर्थशास्त्री जै ड्रेज़ ने बताया, यह दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बन गया, जो जमीन पर कुछ भी नहीं बदलता है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार, भारत की प्रजनन दर 1964 में प्रति महिला औसतन प्रति महिला औसतन छह बच्चों से घटकर 2020 में प्रति महिला के 2.1 बच्चों तक हो गई है।

यह 2.2 की प्रतिस्थापन दर से कम है – यानी, आबादी बनाए रखने के लिए प्रति महिला जन्मों की आवश्यक संख्या। विशेषज्ञों के अनुसार, स्वास्थ्य देखभाल और बढ़ती जीवन प्रत्याशा में सुधार कुछ और दशकों तक जनसंख्या वृद्धि की गति को जारी रखने की संभावना है। अनुमान है कि भारत की आबादी धीरे -धीरे 2064 तक 1.7 बिलियन तक बढ़ जाएगी, लेकिन फिर काफी गिर जाएगी।

यूएस-आधारित इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन ने भविष्यवाणी की है कि भारत की आबादी सदी के अंत तक लगभग 1 बिलियन तक वापस आ सकती है। इस बीच भारतीय मुंह में निवाला कैसे जाए, इस पर विचार करने पर किसानों की बात सामने आ जाती है।

यह इसलिए एक निर्विवाद सत्य है कि कारखानों में उत्पादन हो सकता है, विदेशी पूंजी भी आ सकती है लेकिन वहां रोटियां नहीं बन सकती है। उसके लिए तो खेतों में अनाज का उपजना जरूरी है। शहरीकरण की होड़ और कृषि कार्य का सम्मान नहीं होने की वजह से हम जिस खतरे की तरफ बढ़ रहे हैं, उसे देश के नीति निर्धारक क्यों नहीं देख पा रहे हैं, यह आश्चर्य का विषय है।

दूसरी तरफ जो संख्याबल हमारे पास बढ़ रहा है वह कौन सा उत्पादक काम करेगा और कैसे देश की अर्थव्यवस्था में योगदान देगा, इसकी कोई योजना हमारे पास नहीं है। रोजगार सृजन के बदले अगर सरकारी नीति कृषि में अधिकाधिक लाभ की स्थिति पैदा करने की हो तो वहां का रोजगार भी बहुत अधिक नहीं तो कमसे से अपर्याप्त तो नहीं होगा। इस बात को सरकारों और उसमें बैठे लोगों को समझना होगा। वरना भूखा इंसान एयर कंडिशंड कमरों में बैठे लोगों को चैन से रहने देगा, यह सोचना सपने जैसी स्थिति है।

Leave A Reply

Your email address will not be published.