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क्या अमेरिका विरोधी ध्रुवीकरण तेज हो रहा है

यूक्रेन युद्ध से यह स्पष्ट हो गया है कि अमेरिका सहित यूरोप के अधिकांश देश रूस के खिलाफ हैं। इन देशों में यूक्रेन की हथियारों से मदद भी की है। रूस को पछाड़ने के लिए अनेक किस्म के प्रतिबंध भी लगाये गये हैं। पहले यह समझा गया था कि पश्चिमी दुनिया के इस कदम से रूस कमजोर या पस्त पड़ जाएगा।

अब इसका दूसरा ही परिणाम एशिया में देखने को मिल रहा है। चीन की मध्यस्थता में सऊदी अरब और ईरान एक दूसरे के करीब आये हैं। यह निश्चित तौर पर अमेरिका के लिए चिंता बढ़ाने वाला विषय है क्योंकि इससे पहले चीन ने इतनी आक्रामकता के साथ ऐसी कूटनीति कभी नहीं की थी।

चीन का यह कदम उस संदर्भ में देखा जाना चाहिए कि पश्चिमी देश चीन पर भी यह आरोप लगा रहे हैं कि वह गुप्त तरीके से रूस की मदद कर रहा है। ऐसा ही आरोप ईरान पर भी खास किस्म के ड्रोन रूस को देने का लगा है। अब इस बात को समझना होगा कि सऊदी अरब एक सुन्नी बहुलता वाला देश है और ईरान शिया बहुलता वाला।

इन दोनों के बीच जारी दुश्मनी का असर पूरे मध्य पूर्व में नज़र आता है। जैसे कि यमन में हाउती विद्रोहियों को ईरान का समर्थन मिलता रहा है तो वहां की सरकार का साथ देने वाले सैन्य गठबंधन को सऊदी अरब का। इतना ही नहीं, लेबनान, सीरिया और इराक जैसे देशों के भीतर जारी लड़ाई में ईरान एक गुट के साथ रहा है तो सऊदी अरब दूसरे गुट के साथ।

ये समझौते एक ऐसे मौक़े पर आया है जब चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने तीसरा कार्यकाल संभाला है। उन्होंने 2022 दिसंबर में सऊदी अरब का दौरा किया था। ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी पिछले महीने फरवरी में चीन के दौर पर थे। चीन ने यूक्रेन और रूस के बीच भी समझौते का एक 12 सूत्री फ़ॉर्मूला पेश किया है।

ज़ाहिर है कि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग इस तरह के क़दमों से दुनिया में अमेरिकी दबदबे को कमतर साबित कर चीन का दबदबा स्थापित करना चाहते हैं। पुराने इतिहास को याद करें कि ईरान और सऊदी अरब के संबंध तब और बिगड़ गए जब 2016 में सुन्नी बहुलता वाले सऊदी अरब ने 46 अन्य लोगों के साथ एक शिया मौलाना को फांसी दे दी।

नतीजा ये हुआ कि तेहरान में सऊदी अरब के दूतावास पर शिया प्रदर्शनकारियों ने धावा बोल दिया। सऊदी अरब ने तेहरान से अपने राजनयिकों को वापस बुला लिया। इस तरह ईरान और सऊदी अरब के बीच राजनयिक संबंध टूट गए। सात साल बाद दोनों देशों ने इसकी बहाली का समझौता किया है। इसके दूरगामी नतीजों की उम्मीद की जा रही है।

दोनों देश दो महीने के भीतर अपने अपने दूतावास खोलेंग। दोनों देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक भी तय हुई है। दोनों देशों ने एक दूसरे के अंदरूनी मामलों में दख़ल न देने और एक दूसरे की संप्रभुता के सम्मान का भरोसा दिया है। मध्य पूर्व में दोनों देशों की आपसी खींचतान ख़त्म होने से सुरक्षा का बेहतर माहौल बन सकेगा।

इससे यमन, सीरिया, लेबनान इराक़ जैसे देशों की अंदरूनी लड़ाई पर भी एक हद तक नियंत्रण लग सकेगा। ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों के मद्देनज़र सऊदी अरब उसके साथ किसी बड़े व्यापारिक सहयोग की तरफ़ बढ़ेगा इस पर अभी शक जताया जा रहा है लेकिन ईरान के साथ समझौते के पीछे सऊदी अरब का यूएई के साथ प्रतिस्पर्धा को भी माना जा है।

सऊदी अरब को लगता है कि यूएई उससे सुन्नी प्रधानता की धुरी होने का ताज़ छीन सकता है। यूएई ईरान को अमेरिकी प्रतिबंधों को धत्ता बता कर सामान ख़रीदने-बेचने में मदद करता है जिससे उसे भारी मुनाफ़ा होता है। इसलिए भी सऊदी अरब ने ईरान से रिश्ते सुधारने की तरफ़ क़दम बढ़ाया ताकि ईरान से यूएई को मिल रहा मुनाफ़ा उसके हिस्से भी आए।

सऊदी अरब-ईरान समझौता कराने में इराक भी लगा रहा लेकिन अपनी कमज़ोर राजनयिक और आर्थिक स्थिति के चलते इसे अंतिम परिणति तक पहुंचाने में कामयाब नहीं हुआ और मैदान चीन ने मार लिया।

दरअसल, पिछले कई दशकों में मिडिल ईस्ट में अमेरिका का असर कम से कमतर होता गया है। चीन की मध्यस्था में हुए ईरान-सऊदी अरब समझौते को मिडिल ईस्ट में चीन के बढ़ते असर और बढ़ती भूमिका के तौर पर देखा जा रहा है।

इस तरह चीन लंबे समय के लिए मिडिल ईस्ट से अपनी उर्जा संबंधी ज़रूरतों की आपूर्ति का भविष्य सुनिश्चित करना चाहता है। कुल मिलाकर इससे अमेरिकी हथियारों का बाजार छोटा होगा और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अमेरिकी हथियारों की बिक्री का कम होना भी अमेरिका की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने वाला है। कई अन्य देश भी अमेरिकी हथियारों को अपने अपने देश की अशांति के लिए पहले ही जिम्मेदार ठहरा चुके हैं।

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