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पेड़ों की जड़ों के उगने से भी आयी थी भीषण तबाही

प्राचीन काल की धरती के बदलाव के बारे में एक और जानकारी मिली

  • बड़े पैमाने पर धरती में रासायनिक बदलाव हुआ था

  • समुद्र के शैवाल ने सारा ऑक्सीजन ही सोख लिया था

  • यह मिट्टी के बनने का भी प्रारंभिक काल ही रहा होगा

राष्ट्रीय खबर

रांचीः प्राचीन काल में जब धरती पर पेड़ों ने उगना प्रारंभ किया था तब भी उस काल में एक बहुत बड़ी तबाही आयी थी। आज के दौर में जिस तरीके से हम मौसम के बदलाव, समुद्री जलस्तर के बढ़ने और अप्रत्याशित बारिश से बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं को झेल रहे हैं, उस काल में भी कुछ ऐसी ही प्राकृतिक आपदा आयी थी।

इसका कारण पेड़ की जड़ों के उगने का क्रम प्रारंभ होने की वजह से धरती की जमीन का रासायनिक संतुलन बिगड़ जाना था। वैज्ञानिकों के मुताबिक यह घटना करीब तीन सौ मिलियन वर्ष पूर्व हुई थी। इस बारे में अमेरिकी जिओलॉजिकल सोसायटी में एक लेख प्रस्तुत किया गया है। इस रिपोर्ट को इंडियाना पोलिस के आईयूपीयूआई यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने प्रस्तुत किया है। इस शोध दल का नेतृत्व प्रोफसर गैब्रियल फिलिपीली कर रहे थे। इस काम में यहां से शोधदल को ब्रिटेन के वैज्ञानिकों ने भी सहयोग दिया है।

तमाम सबूतों का विश्लेषण कर शोध दल इस नतीजे पर पहुंचा है कि उस काल में भी सिर्फ पेड़ के जड़ों के उगने का क्रम प्रारंभ होते ही सारी परिस्थितियां बदलने लगी थी। अनुमान है कि तबाही का यह दौर काफी लंबा चला था। जिसके बाद धरती ने फिर से खुद को व्यवस्थित कर लिया था। इस बीच जल के जीवन में भी बदलाव होने लगे थे।

आकलन यह है कि पेड़ की जड़ों के उगने की वजह से समुद्रों में पौष्टिकता की भरमार हो गयी थी। इस वजह से समुद्र और अन्य जल स्रोतों में भी सेवले यानी एल्गिन का प्रभाव जबर्दस्त तरीके से बढ़ गया था। इससे समुद्र में मौजूद ऑक्सीजन की जबर्दस्त कमी की वजह से तबाही का यह दौर प्रारंभ हुआ था। शोध दल ने इसे डेनोवियन काल माना है जो अभी से करीब 419 मिलियन से लेकर 358 मिलियन वर्ष पहले की घटना है। यह भी अनुमान है कि सिर्फ इसी रासायनिक बदलाव की वजह से उस काल में मौजूद सत्तर फीसदी जीवन समाप्त हो गये थे।

शोध दल ने इसकी तुलना वर्तमान परिस्थितियों से की है। अभी भी खेतों में अत्यधिक उर्बरक दिये जाने से फसलों में पौष्टिकता बढी है। इस वजह से उनका प्रभाव जलस्रोतों पर भी पड़ने से कई स्थानों में एल्गी का तेजी से विकास दूसरे किस्म की परेशानियां पैदा कर रहा है।

इनकी तादाद बढ़ने से पानी में मौजूद ऑक्सीजन की कमी होने के पानी का जीवन समाप्त होते हुए अभी भी देखा जा रहा है। शैवाल के प्रभाव में आये कई ऐसी झीलें आज के दौर में मौजूद है, जहां सिर्फ इसी वजह से कोई दूसरा जीवन नहीं बच पाया है। कई स्थानों पर इसके प्रभाव से पानी में एसिड की मात्रा भी इतनी अधिक हो गयी है कि आस पास के इलाके भी इसकी चपेट में आ गये हैं। उस काल की स्थिति के बारे में बताया गया है कि पेड़ के जड़ों के उगने के दौरान वे जमीन से सारी पौष्टिकता खींच रहे थे।

वहां से ली गयी पौष्टिकता को वह पानी में छोड़ रहे थे। इससे पानी की स्थिति बदल रही थी। इस सोच को प्रमाणित करने के लिए शोध दल ने कई प्राचीन झीलों के नीचे के पत्थरों के नमूनों का भी रासायनिक विश्लेषण किया है। इसके अलावा ग्रीन लैंड और स्कॉटलैंड के उत्तर पूर्वी इलाकों से भी नमूने एकत्रित कर शोधदल ने अपने आकलन के पक्ष में साक्ष्य पेश किये हैं।

इन सारे नमूनों में प्राचीन काल के घटनाक्रमों के रासायनिक साक्ष्य मौजूद थे। बताया गया है कि यह वह दौर था जब धरती पर मिट्टी बनने की प्रक्रिया प्रारंभिक अवस्था में थी और मौसम चक्र का भी जन्म हो रहा था। नमी के मौसम में पेड़ की जड़े विकसित होती थी और सूखे में वे प्रभावित होती थी। इस दौरान जमीन से खींची गयी पौष्टिकता पानी में जा रही थी जिससे शैवाल बढ़ रहे थे।

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